________________
७० ]
पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरी
किन्तु मिथ्मादृष्टिपुरुष कर्मोदयसे उसी वस्तुका विशेषरीति से ( स्वरूपविहीन, और रागरञ्जित ) स्वाद लेते हैं । इसलिये एक वस्तु होनेपर भी शुद्ध तथा अशुद्ध ये दो भेद हो जाते हैं । मिथ्यादृष्टीका वस्तु स्वाद
है
स्वदते न परेषां तद्यद्विशेषेप्यनीदृशम् । तेषामलब्धबुद्धित्वाद् दृष्टेर्दृङ्मोहदोषतः ॥ २२२॥
अर्थ — वस्तुकी विशेषतामें भी जिस प्रकार सम्यग्दृष्टी स्वाद लेता है वैसा मिथ्यादृष्टियों को कभी नहीं आता । वे दूसरी तरहका ही वस्तुका विशेष स्वाद लेते हैं और उसमें भी दर्शनमोहनीय कर्मके दोषसे होनेवाली उनकी अज्ञानता ही कारण है ।
भावार्थ - मिथ्यादृष्टि मिथ्यादर्शनके उदयसे वस्तुका विपरीत - विशेष ही ग्रहण करता है ।
और भी-
यद्वा विशेषरूपेण स्वदते तत्कुदृष्टिनाम् ।
अर्थात् सा चेतना नूनं कर्मकार्येऽथ कर्मणि ॥२२३॥
अर्थ - मिथ्यादृष्टीयोंको वस्तुका विलक्षणरीतिसे ही स्वाद आता है अर्थात् उनकी चेतना (बोध) निश्चयसे कर्मफलमें अथवा कर्ममें ही लगी रहती है ।
भावार्थ - उन्हें ज्ञान चेतना जोकि बन्धका हेतु नहीं है कभी नहीं होती । मिथ्यादृष्टियों के स्वादका दृष्टान्त
दृष्टान्तः सैन्धवं खिल्यं व्यञ्जनेषु विमिश्रितम् ।
व्यञ्जनं क्षारमज्ञानां स्वदते तद्विमोहिनाम् ॥ २२४ ॥
अर्थ — दृष्टान्त - नमक का टुकड़ा (डली) जिस भोजन सामग्रीमें मिला दिया जाता
है उस भोजनको यदि अज्ञानी जीमता है, तो वह समझता है कि भोजन ही खारा है। भावार्थ --- आटेमें नमक मिलानेसे अज्ञानी समझता है कि यह खारापन आटेका ही है उसे नमकका नहीं समझता । इसीप्रकार मिथ्यादृष्टी पुरुष वस्तुकी यथार्थताको नहीं जानता । सम्यग्दृष्टियों के स्वादका दृष्टान्त
क्षारं खिल्यं तदेवैकं मिश्रितं व्यञ्जनेषु वा ।
न मिश्रितं तदेवैकं स्वदते ज्ञानवेदिनाम् ॥ २२५ ॥
अर्थ — चाहे नमक भोजनमें मिला हो चाहे न मिला हो ज्ञानीपुरुष खारापन नमकका ही समझते हैं ।
भावार्थ — आटेमें नमक मिलनेसे जो खारापनका स्वाद आता है उसे ज्ञानी पुरुष आठेका नहीं समझते, किन्तु नमकका ही समझते हैं । इसीप्रकार सम्पन्छी पुरुष वस्तुकी
1