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पञ्चाध्यायी।
[दूसरा
कारण नहीं है, और वही शुद्धोपलब्धि है। अशुद्धोपलब्धिमें कर्मजनित उपाधियोंकी तन्मयता है। उन्हीका स्वादुसंवेदन होता है। वहां ज्ञानपूर्वक कर्मबन्ध करनेकी अथवा अज्ञान अवस्थामै कर्मफल भोगनेकी प्रधानता है इसलिये उसे कर्मधेतमा अथवा कर्मफलचेतमा कहते हैं। ये ही दोनों कर्मबन्धकी मुख्यता रखती हैं। अब इन्ही दोनों चेतनाओंके स्वामियोंको बतलाते हैं।
इयं संसारिजीवानां सर्वेषामविशेषतः ।
अस्ति साधारणीवृत्ति न स्यात् सम्यक्त्वकारणम् ॥२१४॥ - अर्थ-यह कर्मचेतना अथवा कर्मफलचेतना सामान्यरीतिसे सभी संसारी जीवोंके होती है। यह सम्यक्त्व पूर्वक नहीं होती है, किन्तु साधारण रीतिसे हरएक संसारी जीवा. त्मामें पाई जाती है।
न स्यादात्मोपलब्धिर्वा सम्यग्दर्शनलक्षणम् । . शुद्धा चेदस्ति सम्यक्त्वं न चेच्छुद्धा न सा सुदृक् ॥२१॥ __ अर्थ-यह भी नियम नहीं है कि आत्मोपलब्धि मात्र ही सम्यग्दर्शन सहित होती है, यदि वह उपलब्धि शुद्ध हो तबतो सम्यग्दर्शन समझना चाहिये । यदि वह उपलब्धि "अशुद्ध हो तो सम्यादर्शन भी नहीं समझना चाहिये।
भावार्थ-आत्मोपलब्धि शुद्ध भी होती है तथा अशुद्ध भी होती है । शुद्धोपलब्धिके साथ सम्यग्दर्शमकी व्याप्ति है, अशुद्धोपलब्धिके साथ नहीं है। इस कथनसे यह बात मी सिद्ध हो जाती है कि सभी उपलब्धियां सम्यक्त्व सहित नहीं हैं।
शङ्काकार
ननु चेयमशुद्धैव स्थादशुद्धा कथंचन ।
अथ बन्धफला नित्यं किमबन्धफला कचित् ॥ २१ ॥
अर्थ-शङ्काकार कहता है कि पूर्वोक्त आत्मोपलब्धि अशुद्ध ही है ? अथवा किसी समय अशुद्ध है ? क्या सदा बन्ध करनेवाली है ? अथवा कभी बन्धका कारण नहीं भी है ?
उत्तर.. सत्यं शुद्धास्ति सम्यक्त्वे सेवाशुडास्ति तद्विना ।
असत्यबन्धफला तत्र सैव बन्धफलाऽन्यथा ॥ २१७॥
अर्थ--हां ठीक है, सुनो ! यदि वह उपलब्धि सम्यग्दर्शनके होनेपर हो, तब तो शद्ध है और विना सम्यग्दर्शनके वही अशुद्ध है । सम्यग्दर्शनके होनेपर वह बन्धका कारण नहीं है और सम्यग्दर्शनके अभावमें बन्धका कारण है।