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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका। __भावार्थ-वस्तुके स्वयं अनुभव करनेमें और दूसरेको उसका ज्ञान होनेमें प्रत्यक्ष ही अन्तर है । शास्त्रज्ञ नारकियोंके दुःखका केवल ज्ञान रखते हैं परन्तु नारकी उस दुःखका स्वयं अनुभव करते हैं। इसी प्रकार केवलज्ञानी ( सर्वज्ञ ) भी वस्तुका ज्ञान मात्र करते हैं उसका स्वाद नहीं लेते।
क्योंकि*व्याप्यव्यापकभावः स्यादात्मनि नातदात्मनि ।
व्याप्यव्यापकताभावः स्वतः सर्वत्र वस्तुषु ॥ २११ ॥
अर्थ-जिसका जिसके साथ व्याप्य व्यापक भाव ( सम्बन्धविशेष ) होता है उसीका उसके साथ अनुभव घटता है। व्याप्य व्यापक भाव अपने सुख दुःखका अपने साथ है। दूसरेके साथ नहीं । क्योंकि व्याप्य व्यापकपना सर्वत्र वस्तुओंमें भिन्न २ हुआ करता है।
भावार्थ-हरएक आत्माके गुणका सम्बन्ध हरएक आत्माके साथ जुदा है । इसलिये एक आत्माके सुख दुःखका अनुभव दूसरा आत्मा कभी नहीं कर सकता है । हां उसका उसे ज्ञान हो सकता है । किसी बातके जाननेमें और स्वयं उसका स्वाद लेनेमें बहुत अन्तर है।
___ अशुद्धोपलब्धि बन्धका कारण हैउपलब्धिरशुडासौ परिणामक्रियामयी। ____ अर्थादौदयिकी नित्यं तस्माद्वन्धफला स्मृता ॥ २१२॥
अर्थ-यह जो सुख दुःखादिककी उपलब्धि होती है वह अशुद्ध-उपलब्धि है तथा क्रियारूप परिणामको लिये हुए है अर्थात् वह उपलब्धि कर्मोके उदयसे होनेवाली है । इसलिये उसका बन्ध होना ही फल बतलाया गया है।
अशुद्धोपलब्धि ज्ञान चेतना नहीं हैअस्त्यशुद्धोपलब्धिः सा ज्ञानाभासाचिदन्वयात् ।
न ज्ञानचेतना किन्तु कर्म तत्फलचेतना ॥ २१३ ॥
अर्थ-वह उपलब्धि, अशुद्ध-उपलब्धि कहलाती है। उस उपलब्धिमें यथार्थ ज्ञान नहीं होता, किन्तु मिथ्या स्वादुसंवेदन रूप ज्ञानाभास होता है। इसलिये उसे ज्ञानचेतना नहीं कह सकते । किन्तु अशुद्ध ज्ञानका संस्कार लिये हुए ज्ञानपूर्वक कर्मबन्ध करनेकी और कर्मफलके भोगनेकी प्रधानता होनेसे उसे कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना कहते हैं।
भावार्थ-ज्ञान चेतनामें आत्मीय गुणका अनुभवन होता है । इसलिये वह बन्धका . * अल्प देशवृत्ति पदार्थ व्याप्य कहलाता है, अधिक देशवृत्ति व्यापक कहलाता है परन्तु यह भी स्थूल कथन है। समानतामें भी व्याप्य व्यापक भाव होता है। यह एक सम्बन्ध विशेष है। जैसे वृक्ष और शिशुपाका होता है ।