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पञ्चाध्यायी ।
इसी बात को स्पष्ट करते हैं-:
तद्यथा सुखदुःखादिरूपेणात्माऽस्ति तन्मयः T तदात्वेऽहं सुखी दुःखी मन्यते सर्वतो जगत् ॥ २०६ ॥ या क्रुडोयमित्यादि हिनस्म्येनं हाद्विषम् । न हिनस्मि वयस्यं स्वं सिद्धं चेत्तत् सुखादिवत् ॥२०७॥
अर्थ - यह आत्मा सुख दुःख आदि विकारोंके होनेपर स्वयं तन्मय हो जाता है । सांसारिक सुख मिलने पर समझता है कि मैं सुखी हूं, दुःख होनेपर समझता है कि मैं दुःखी हूं इस प्रकार सब वस्तुओंमें ऐसी ही बुद्धि इसकी हो रही है । कभी कभी ऐसे भाव भी करता है कि यह क्रोधी है मैं इस शत्रुको अवश्य ही मार डालूंगा तथा अपने मित्रको कभी नहीं मारूंगा । इन बातोंसे यह बात सिद्ध होती है कि यह जगत् सुख दुःखादिका वेदन करनेवाला है ।
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[ दूसरा
उपलब्धि प्रत्यक्षात्मक है
बुडिमात्र संवेद्यो यः स्वयं स्यात्सवेदकः ।
स्मृतिव्यतिरिक्तं ज्ञानमुपलब्धिरियं यतः ॥ २०८ ॥
अर्थ – यहां पर स्वयं जाननेवाला बुद्धिमान् पुरुष ही समझना चाहिये वही समझ सकता है कि यह सुख दुःखकी जो आत्मामें उपलब्धि होती है वह स्मृतिज्ञान नहीं है, किन्तु उससे भिन्न ही है ।
उपलब्धिका अनुभव होता है
नोपलब्धिरसिद्धास्य स्वादुसंवेदनात्स्वयम् ।
अन्यादेशस्य संस्कारमन्तरेण सुदर्शनात् ॥ २०९ ॥
अर्थ — आत्मामें सुख दुःखका अनुभव होता है इसलिये इसकी उपलब्धि असिद्ध नहीं है किन्तु सिद्ध ही है । क्योंकि यह आत्मा विना किसीके कहे हुए संस्कारके स्वयं ही कभी सुखका और कभी दुःखका अनुभव करता है यह सुप्रतीत है ।
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अतिव्याप्ति दोष नहीं है—
नातिव्याप्तिर भिज्ञाने ज्ञाने वा सर्ववेदिनः ।
तयोः संवेदनाभावात् केवलं ज्ञानमात्रतः ॥ २१० ॥
अर्थ —- इस सुख दुःख के स्वादुसंवेदनकी तरह प्रत्यभिज्ञान अथवा केवलज्ञान भी हो
ऐसा नहीं है । प्रत्यभिज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही वस्तुका ज्ञान मात्र तो करते हैं, परन्तु वस्तुके स्वादका अनुभव नहीं करते। इसलिये यह उपलब्धि उक्त दोनों ज्ञानोंसे भिन्न प्रकारकी ही है ।