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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
पुनः शङ्कःकार
ननु सद्दर्शनं शुद्धं स्वादशुद्धा मृषा रुचिः ।
तत्कथं विषयश्चैकः शुद्धाशुद्धविशेषभाक् ॥ २१८ ॥
अर्थ — शङ्काकार कहता है कि सम्यग्दर्शन तो शुद्ध है और मिथ्यादर्शन अशुद्ध है और दोनोंका विषय एक ही है। ऐसी अवस्था में एक शुद्ध और दूसरा अशुद्ध कैसे हो सकता है ?
उसीकी दूसरी शङ्का
या नवसु तत्त्वेषु चास्ति सम्यग्दृगात्मनः ।
आत्मोपलब्धिमात्रं वै. साचेच्छुडा कुतो नय ।। २१९ ।।
अर्थ - सम्यग्दृष्टीकी नव तत्त्वों ( नव पदार्थों ) के विषय में आत्मोपलब्धि होती है। यदि वह आत्मोपलब्धि शुद्ध है, तब नौ पदार्थ कहां से हो सकते हैं ।
भावार्थ — शङ्काकारका आशय है कि सम्यग्दृष्टि नव तत्वोंका अनुभव करता है । यदि वह अनुभव शुद्ध है तो नौ तत्त्व कैसे हो सकते हैं? क्योंकि नौ तत्त्व तो कर्मोंके निमितसे होनेवाले हैं, शुद्ध नहीं है ? इसलिये यातो वह उपलब्धि शुद्ध नहीं है, अथवा वह शुद्ध है तो नव तत्त्व नहीं ठहरते ?
उत्तर
नैवं यतः स्वतः शश्वत् स्वादुभेदोस्ति वस्तुनि । तत्राभिव्यञ्जक द्वेधाभावसद्भावतः पृथक् ॥१२०॥
अर्थ — शङ्काकारकी उपर्युक्त दोनों शङ्कायें ठीक नहीं हैं क्योंकि वस्तु एक होनेपर भी उसमें किसी जतानेवाले अभिव्यञ्जक (सूचक) के द्विवाभाव होनेसे भिन्न २ निरन्तर स्वाद भेद हो जाता है
भावार्थ - जैसा सूचक होता है वैसी ही वस्तुकी प्रतीति होने लगती हैं, सूचक दो प्रकार हैं । इसलिये वस्तु एक होनेपर भी उसमें दो प्रकार ही स्वादुभेद होजाता हैं। इसी बातका स्पष्टीकरण
शुद्धं सामान्यमात्रत्वादशुद्धं तद्विशेषतः ।
वस्तु सामान्यरूपेण स्वदते स्वादु सद्विदाम् ॥२.२१ ॥
अर्थ - सामान्यमात्र विषय होनेसे शुद्धता समझी जाती हैं और वस्तुकी विशेषता में अशुद्धता समझी जाती है । सद्वस्तुका बोध करनेवाले सम्यग्दृष्टियोंको वस्तुका सामान्य स्वाद आता है ।.
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भावार्थ -- सम्यग्दृष्टी पुरुष, वस्तुका स्वरूप जैसा है वैसा ही सामान्यरीतिले ।