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पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा
कहा है, इससे जाना जाता है कि वे कविता करने में भी धुरन्धर थे, वास्तव में इतने गहन तत्त्वको पद्यों द्वारा प्रकट करना, सो भी अति स्पष्टतासे यह बात उनके महाकवि होनेमें पूर्ण प्रमाण है । साथमें उन्होंने पूर्वापर विचारक अपनेको बतलाया है। इससे उन्होंने अपने ग्रन्थ में "निर्दोषता सिद्ध की है । वह दो तरह की है - एक तो अपने ही ग्रन्थ में पूर्वापर कहीं विरुद्धता न हो जाय, अथवा कथन, क्रम पद्धति से बाहर तो नहीं है इस दोषको उन्होंने हटाया है । दूसरे - पूर्वाचार्यों के कथनको पूर्वापर अवलोकन करके ही यह ग्रन्थ बनाया है, यह बात भी उन्होंने प्रकट की है । इन बातोंसे आचार्यने अपनी निजी कल्पना, ग्रन्थकी असंबद्धता और साहित्यदोष आदि सभी बातों को हटा दिया है ।
जीवका निरूपण -
जीवसिद्धिः सती साध्या सिद्धा साधीयसी पुरा । तत्सिद्धलक्षणं वक्ष्ये साक्षात्तल्लब्धिसिद्धये ॥ १९९ ॥
अर्थ — पहले जीवकी सिद्धि कह चुके हैं, इसलिये प्रसिद्ध है । उसीको पुनः साध्य बनाते हैं अर्थात् सिद्ध करते । जीवके ठीक २ स्वरूपकी प्राप्ति हो जाय, इसलिये उसका सिद्ध ( प्रसिद्ध ) लक्षण कहते हैं ।
अब जीवका स्वरूप बतलाते हैं
स्वरूपं चेतना जन्तोः सा सामान्यात्सदेकधा ।
सद्विशेषादपि देधा क्रमात्सा नाऽक्रमादिह ॥ १९२ ॥
अर्थ — जीवका स्वरूप चेतना है वह चेतना सामान्य रीतिसे एक प्रकार है क्योंकि सामान्य रीति से सत्ता एक ही प्रकार है । तथा सत् विशेषकी अपेक्षासे वह चेतना दो प्रकार है । परन्तु उसके दोनों भेद क्रमसे होते हैं एक साथ नहीं होते ।
भावार्थ - जीव ज्ञान दर्शन मय है । सामान्य रीति से यही एक लक्षण जीव मात्रमें घटित होता है। शुद्ध - अशुद्ध विशेष भेद करनेसे लक्षण भी दो प्रकारका होजाता है । इतना विशेष है कि एक समय में एक ही स्वरूप घटित होता ह ।
उन्हीं भेदों को बतलाते हैं
एका स्याच्चेतना शुद्धा स्वादशुडा परा ततः ।
शुडा स्यादात्मनस्तत्त्वमस्त्यशुद्धाऽऽत्मकर्मजा ॥ १९३ ॥ अर्थ - एक शुद्ध चेतना है दूसरी अशुद्ध चेतना है । शुद्ध चेतना आत्माका निजरूप है और अशुद्ध चेतना आत्मा और कर्मके निमित्तसे होती है ।
चेतनाके भेद
एकधा चेतना शुद्धां शुद्धस्यैकविधत्त्वतः ।
शुद्धाशुद्धोपलब्धित्त्वाज्ज्ञानत्त्वाज्ज्ञानचेतना ॥ १९४ ॥