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अध्याय । ]
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सुबोधिनी टीका।
अर्थ-शुद्ध चेतना एक प्रकार है क्योंकि शुद्ध एक प्रकार ही है। शुद्ध चेतनामें शुद्धताकी उपलब्धि होती है इसलिये वह शुद्ध है और वह शुद्धोपलब्धि ज्ञान रूप है इसलिये उसे ज्ञान चेतना कहते हैं।
भावार्थ-आत्मामें जो भेद होते हैं वे कर्मोके निमित्तसे होते हैं आत्माका निज रूप एक ही प्रकार है, उसमें भेद नहीं है, इसी लिये कहा गया है कि शुद्ध एक ही प्रकार होता है । जो चेतना जीवके असली स्वरूपको लिये हुए है उसीका नाम शुद्ध चेतना है। और वह चेतना ज्ञान रूप है इस लिये उसे ज्ञान चेतना कहते हैं।
अशुद्ध चेतना-- अशुद्धा चेतना द्वेधा तद्यथा कर्मचेतना ।
चेतनत्वात्फलस्यास्थ स्यात्कर्भफलचेतना ॥ १९५ ॥ .
अर्थ--अशुद्ध चेतना दो प्रकार है । एक कर्म चेतना, दूसरी कर्मफल चेतना । कर्मफल चेतनामें फल भोगनेकी मुख्यता है ।
भावार्थ-चेतनाके तीन भेद कहे गये हैं-१ ज्ञान चेतना, २ कर्म चेतना ३ कर्म•फल चेतना । ज्ञान चेतना सम्यग्दृष्टिके ही होती है क्योंकि वहां पर शुद्ध-आत्मीक भावोंकी प्रधानता है। बाकीकी दोनों चेतनायें मिथ्यादृष्टिके होती हैं। इतना विशेष है कि कर्म चेतना संज्ञी मिथ्याष्टिके होती है और कर्मफल चेतना असंज्ञीके होती है। कर्म चेतनामें ज्ञानपूर्वक क्रियाओं द्वारा कर्म बन्ध करनेकी प्रधानता है और कर्म फल चेतनामें कर्म बन्ध करनेकी प्रधानता नहीं है किन्तु कर्मका फल भोगनेकी प्रधानता है ।
ज्ञान चेतनाको व्युत्पत्तिअत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्यस्तन्मात्रतः स्वयम् । स चेत्यतेऽनया शुद्धः शुद्धा सा ज्ञानचेतना ॥ १९६ ॥
अर्थ-यहां पर ज्ञान शब्दसे आत्मा समझना चाहिये । क्योंकि आत्मा ज्ञान रूप ही स्वयं है । वह आत्मा जिसके द्वारा शुद्ध जानी जावे उसीका नाम ज्ञान चेतना है।
भावार्थ--जिस समय शुद्धात्माका अनुभवन होता है। उसी समय चेतना ( ज्ञान ) ज्ञान चेतना कहलाती है। उस समय बाह्योपाधिकी मुख्यता नहीं रहती है। जिस समय बाह्योपाधिकी मुख्यता होती है उस समय आत्माका ज्ञान गुण (चेतना) अशुद्धताको धारण करता है और उसके अभावमें ज्ञान मात्र ही रह जाता है। इसलिये उसे शुद्ध चेतना अथवा ज्ञान चेतना कहते हैं।