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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
सारांश-
-६१-1
ततोऽनर्थान्तरं तेभ्यः किंचिच्छुडमनीदृशम् । शूद्धं नव पदान्येव तद्विकाराहते परम् ।। १८६ ॥
अर्थ — इसलिये अशुद्धता से विलक्षण जो शुद्ध जीव है वह उन नौ पदार्थोंसे कर्मचित् अभिन्न है । सर्वथा भिन्न कहना मिथ्या है। ऐसा भी कह सकते हैं कि विकारके दूर हो जानेपर वे नौ पदार्थ ही शुद्ध स्वरूप हैं ।
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भावार्थ - जीव की ही नव रूप विकारावस्था है इस लिये उस विकारावस्थाके हटा देनेपर वही जीव शुद्ध हो जाता हैं ।
पहले शंकाकारने शुद्ध जीवको नव पदार्थोंसे सर्वथा भिन्न बतलाया था, परन्तु इस कथन से कथंचित् अभिन्नता सिद्ध की गई है ।
सूत्रका आशय --
अतस्तत्त्वार्थश्रद्धानं सूत्रे सद्दर्शनं मतम् ।
तत्तत्वं नव जीवाद्या यथोद्देश्याः क्रमादपि ॥ १८७ ॥
अर्थ — श्रीमद्भवान् उमास्वामीने " तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् " इस सूत्रद्वारा तत्त्वार्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया है, वही सूत्रका आशय उपर्युक्त कथनसे सिद्ध होता है । अब उन्ही जीवादिक नव तत्त्वों (पदार्थों) को क्रमसे बतलाते हैं—
तदुद्देश्यो यथा जीवः स्याद्जीवस्तथास्रवः ।
बन्धः स्यात्संवरश्चापि निर्जरा मोक्ष इत्यपि ॥ १८८ ॥ सप्तैते पुण्यपापाभ्यां पदार्थास्ते नव स्मृताः । सन्ति सद्दर्शनस्योच्चैर्विषया भूतार्थमाश्रिताः ॥ १८९ ॥ अर्थ-वे नव पदार्थ इस प्रकार हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष
ये सात तत्त्व और पुण्य तथा पाप । ये नौ पदार्थ सम्यग्दर्शन के विषयभूत हैं अर्थात इन्हींका श्रद्धानी सम्यग्दृष्टी है और ये पदार्थ वास्तविक हैं ।
आचार्यकी नयी प्रतिज्ञा
तत्राधिजीवमाख्यानं विद्धाति यथाधुना ।
कविः पूर्वापरायत्तपर्यालोच विचक्षणः ॥ १९० ॥
अर्थ — पूर्वापर विचार करने में अति चतुर कविवर ( आचार्य ) अत्र जीवके विषय में व्याख्यान करते हैं
भावार्थ - आचार्यने इस लोक द्वारा कई बातोंको सिद्ध कर दिखाया है । प्रतिज्ञा तो इस बातकी की है कि अब वे जीवका निरूपण सबसे पहले करेंगे । अपनेको उन्होंने कवि