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अध्याय । ]
बोधिनी टीका ।
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• ग्राह्यताका उपदेश भी कैसे हो सकता है ? जो पुरुष अन्धकारको अच्छी तरह पहचानता है वही तो प्रकाशका अनुभव करता है । जिसने कभी अन्धकार में प्रवेश ही नहीं किया है वह • प्रकाशका अनुभव भी क्या करेगा ?
आशङ्का-
नावाच्यता पदार्थानां स्यादकिञ्चित्करत्वतः । सार्थानीति यतोऽवश्यं वक्तव्यानि नवार्थतः ॥ १७७ ॥ अर्थ - यदि कोई कहे कि ये नौ पदार्थ अकिश्चित्कर ( कुछ प्रयोजनी भूत नहीं ) है " इसलिये इनको कहने की कोई आवश्यकता नहीं है ? ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि इन नौ पदार्थों का कहना अवश्य सार्थक ( कुछ प्रयोजन रखता है ) है इसलिये नौ पदार्थ अवश्य ही कहने योग्य हैं ।
नौ पदार्थोंके कहने का प्रयोजन
न स्यात्तेभ्योऽतिरिक्तस्य सिद्धिः शुद्धस्य सर्वतः । साधनाभावतस्तस्य तद्यथानुपलब्धितः ॥ १७८ ॥
अर्थ – यदि नौ पदार्थों को न माना जाय तो उनसे अतिरिक्त शुद्ध जीव का भी कभी अनुभव नहीं हो सकता अर्थात् शुद्ध जीव भी विना अशुद्धता के स्वीकार किये सिद्ध नहीं होता । क्योंकि कारणसामग्री अभावमें कार्य की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती है । अशुद्धता पूर्वक ही शुद्धताकी उपलब्धि होती है ।
शङ्काकार-
ननु चार्थान्तरं तेभ्यः शुद्धं सम्यक्त्वगोचरम् ।
अस्ति जीवस्य स्वं रूपं नित्योद्योगं निरामयम् ॥ १७९ ॥ न पश्यति जगद्यावन्मिथ्यान्धतमसा ततम् । अस्तमिथ्यान्धकारं चेत् पश्यतीदं जगजवात् ॥ १८० ॥
अर्थ — शङ्काकार कहता है कि उन नौ पदार्थोंसे जीवका निजरूप भिन्न ही है, वह शुद्ध है, नित्य उद्योगशील है, निरोग है, और वही शुद्ध रूप सम्यक्त्व गोचर है । परन्तु उस शुद्ध रूपको जगत् तब तक नहीं देख सकता है जब तक कि वह मिथ्यात्व रूपी अँधेरे से व्याप्त ( अन्धा ) हो रहा है । जब इस जगत्का मिथ्यान्धकार नष्ट हो जाता है तभी यह जगत् बहुत ही शीघ्र उस शुद्ध जीवात्माको देखने लगता है ?
उत्तर
नैवं विरुर्द्धधर्मत्वाच्छुद्धाशुद्धत्वयोर्द्वयो: ।
नैकस्यैकपदे स्तः शुद्धाशुद्धे क्रियेर्थतः ॥ १८१ ॥