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अध्याय । ]
सुबोधिनीटीका ।
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मालूम होने लगता है ।
आदि विकार नहीं है ।
स्फटिक पत्थरमें विकार हो जाता है अर्थात् वह स्फटिक भी लाल परन्तु यथार्थ रीतिसे देखा जाय तो स्फटिकमें कोई प्रकारका लाली भावार्थ — इसी प्रकार आत्मा भी पुलके निमित्तसे नौ प्रकार दीखने लगता है, परन्तु यथार्थ में वह ऐसा नहीं है ।
ज्ञानका दृष्टान्त
ज्ञानं स्वयं घटज्ञानं परिच्छिन्दद्यथा घटम् । नार्थाज्ज्ञानं घटोयं स्याज्ज्ञानं ज्ञानं घटो घटः ॥ १७० ॥ अर्थ - जिस समय ज्ञान घटको जानता है उस समय वह स्वयं घट ज्ञान कहलाता है । परन्तु वास्तवमें ज्ञान घट रूप नहीं हो जाता है । किन्तु ज्ञान, ज्ञान ही रहता है और घट घट ही रहता है ।
भावार्थ-ज्ञानका यह स्वभाव है कि जिस पदार्थको वह जानता है, उसी पदार्थके आकार हो जाता है । ऐसा होने पर भी वह ज्ञान पदार्थ रूप परिणत नहीं होता है, वास्तवह तो ज्ञान ही है । इसी प्रकार जीवात्मा भी वास्तवमें रागद्वेषादि विकार मय नहीं है ।
समुद्रका दृष्टान्त
वारिधिः सोत्तरङ्गोऽपि वायुना प्रेरितो यथा ।
नार्थादैक्यं तदात्वेपि पारावारसमीरयोः ॥ १७१ ॥
अर्थ — वायुके निमित्तसे प्रेरित होता हुआ समुद्र ऊँची ऊँची तरङ्गोंको धारण करता है । परन्तु ऐसा होने पर भी समुद्र और वायुमें अभिन्नता नहीं है ।
भावार्थ- इसी प्रकार आत्मा भी पुलके निमित्तसे नौ अवस्थाओंको धारण करता है, वास्तव में वह पुद्गलसे अभिन्न नहीं है ।
सैन्धवका दृष्टांत
सर्वतः सैन्धवं खिल्यमर्थादेकरसं स्वयम् | चित्रोपदेश केषूच्चैर्यन्नानेकरसं यतः ॥ १७२ ॥
अर्थ — वास्तव में नमकका स्वण्ड एक रस स्वरूप है, उसका स्वाद तो नमक रूप ही होता है । परन्तु भिन्न भिन्न प्रकारके व्यंजनोंमें पहुंचनेसे भिन्न भिन्न रीतिसे स्वाद आता है । लेकिन नमक तो नमक ही रहता है। वह किसी भी वस्तुमें क्यों न मिला दिया जाय, नमकका दूसरा स्वाद नहीं बदलेगा ।
भावार्थ - इसी प्रकार आत्माकी पुद्गल सम्बन्धसे अनेक अवस्थायें प्रतीत होनेपर भी वास्तव आत्मा शुद्ध स्वरूप एक रहमें ही प्रतीत होता है।
३०द्र