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पञ्चाध्यायी ।
कमलका दृष्टान्त
यमनं यथा पद्मपत्रमत्र तथा न तत् । तदस्पृश्यस्वभावत्वादर्थतो नास्ति पत्रतः ॥ १६५ ॥
[ दूसरा
अर्थ — यद्यपि कमल जलमें मग्न है तथापि वह जलमें नहीं है वास्तव दृष्टिसे जलमें कमल नहीं है । क्योंकि उसका जलसे भिन्न रहनेका स्वभाव है।
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भावार्थ-उसी प्रकार जीवात्माका स्वभाव भी वास्तव में पुद्गलसे भिन्न है जिस प्रकार कि जलमें डूबे रहने पर भी कमल जलसे भिन्न है ।
जलका दृष्टान्त----
मकर्दमं यथा वारि वारि पश्य न कर्दमम् ।
दृश्यते तदवस्थायां शुद्धं वारि विपङ्कवत् ॥ १६६ ॥
अर्थ - जो जल कीचड़ में मिला हुआ है, उस जलमें भी यदि तुम जलका स्वरूप देखो, कीचड़का न देखो तो तुम्हें मिली हुई अवस्था में भी कीचड़ से भिन्न शुद्ध जलकी ही प्रतीति होगी । इसी प्रकार जीवात्मा भी पुद्गलसे भिन्न प्रतीत होता है ।
अग्निका दृष्टान्त ।
अभिर्यथा तृणानिः स्यादुपचारान्तृणं दहन् ।
नाग्निस्तृणं तृणं नाग्निरग्निरग्निस्तृणं तृणम् ॥ १६७ ॥
अर्थ-जिस समय अग्नि तिनकेको जला रही है, उस समय उस अग्निको तिनकेके निमित्तसे - उपचारसे तिनकेकी अग्नि कह देते हैं । परन्तु वास्तव में तिनकेकी अग्नि क्या है ? अग्नि ही अग्नि है । अग्नि तिनका नहीं है । और न तिनका अग्नि है । अग्नि, अग्नि ही है और तिनका तिनका ही है ।
दर्पणका दृष्टान्त
प्रतिबिम्बं यथादर्शे सन्निकर्षात्कलापिनः ।
तदात्वे तदवस्थायामपि तत्र कुतः शिखी ॥ १६८ ॥
अर्थ - जिस प्रकार दर्पण में मयूरके सम्बन्धसे प्रतिविम्व (छाया) पड़ता है । परन्तु वास्तव में छाया पड़ने पर भी वहां मयूर नहीं है। केवल दर्पण ही है। उसी प्रकार पुद्गलके निमित्तसे जीवात्मा अशुद्ध प्रतीत होता है वास्तव में वह शुद्ध निराला ही है ।
स्फटिकका दृष्टान्त -
जपापुष्पोपयोगेन बिकारः स्फटिकाइमनि ।
• अर्थात्सप विकारश्चाऽवास्तवस्तत्र वस्तुतः ॥ १६९ ॥
- जपापुष्प लाल फूल होता है, उस फूलको स्फटिक पत्थरके पीछे लबा