________________
अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
[ ५५
अर्थ- सोनेके साथ दूसरे पदार्थका मेल हो रहा है । मेल होनेसे सोना अग्राह्य नहीं है । यदि उपाधिविशिष्ट सोनेका ग्रहण न किया जाय तो सर्वशून्यता आदि अनेक दोषोंका समावेश होगा । क्योंकि विना अशुद्धताके स्वीकार किये शुद्धता भी नहीं ठहरती ।
1
न परीक्षाक्षमं चैतच्छुद्धं शुद्धं यदा तदा । शुडस्यानुपलब्धौ स्याल्लब्धिहेतोरदर्शनम् ॥ १६१ ॥
अर्थ- — यह कहना भी परीक्षाके योग्य नहीं है कि जिस समय सोना शुद्ध है उस समय वह शुद्ध ही है । ऐसा माननेसे शुद्ध सोनेका प्रतिभास भी नहीं हो सकेगा । क्योंकि शुद्धतामें कारण अशुद्धता है । अशुद्धतामें ही शुद्धता का प्रतिभास होता है । अशुद्धताका अदर्शन (लोप) होनेसे शुद्धताका भी लोप हो जायगा ।
यदा तद्वर्णमालायां दृश्यते हेम केवलम् ।
न दृश्यते परोपाधिः स्वष्टं दृष्टेन हेम तत् ॥ १६२ ॥
अर्थ – जिस समय अनेक रूपोंको लिये हुए उस मिले हुए सोने में केवल सोनेको हम देखते हैं तो उस समय दूसरे पदार्थों की उपाधिका प्रतिभास नहीं करते हैं । उस समय तो अपना इष्ट जो सोना है उसीका प्रत्यक्ष कर लेते हैं ।
1
भावार्थ — मिले हुए सोनेमेंसे सोनेका स्वरूप विचारने पर केवल सोनेका ही स्वरूप झलक जाता है । उस समय उस सोने के साथ जो दूसरे पदार्थ मिले हुए हैं वे नहीं की तरह ठहर जाते हैं !
फलितार्थ
ततः सिद्धं यथा हेम परयोगाद्विना पृथक् । सिद्धं तद्वर्णमालायामन्ययोगेपि वस्तुतः ॥ १६३ ॥ प्रक्रियेयं हि संयोज्या सर्वदृष्टान्तभूमिषु । साध्यार्थस्याविरोधेन साधनालंकरिष्णुषु ॥ १६४ ॥
-
अर्थ - तावाँ, पीतल, चांदी आदिसे मिला हुआ भी सोना वास्तवदृष्टिसे विचार करनेपर दूसरे पदार्थोंके मेलसे रहित शुद्ध ही प्रतीत हो जाता है अर्थात् अनेक पदार्थोंका मेल होनेपर भी सोनेका स्वरूप भिन्न ही प्रतीत हो जाता है । उसी प्रकार पुद्गलके निमित्तसे नौ अवस्थाओं में आया हुआ भी जीव, ( उसका स्वरूप विचारने पर ) शुद्ध ही प्रतीत हो
है।
जिस प्रकार सोनेका दृष्टान्त घटित किया गया है उसी प्रकार सब दृष्टान्तोंको घटित करना चाहिये। वे दृष्टान्त 'ही साध्यार्थके साथ अविरोध रीति से साधनको बतलाने के लिये भूषण स्वरूप हैं अर्थात् साध्य साधनके ठीक ठीक परिज्ञानके लिये ये दृष्टान्त अत्युपयोगी हैं।