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पञ्चाध्यायी।
[दूसरा
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फलितार्थइति दृष्टान्तसनाथेन स्वष्टं दृष्टेन सिद्धिमत् ।
यत्पदानि नवामूनि वाच्यान्यीदवश्यतः॥ १७३ ॥
अर्थ-इस प्रकार अनेक दृष्टांतोंसे प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा हमारा अभीष्ट सिद्ध हो चुका । वह अभीष्ट यही है कि ये आत्माकी नौ अवस्थायें (नव पदार्थ) अवश्य कहनी चाहिये।
भावार्थ-अनेक लोगोंका इस विषयमें विवाद था कि नौ पदार्थ कहने चाहिये अथवा शुद्ध आत्माका ही सदा ग्रहण करना चाहिये । इस विषयमें उपर्युक्त दृष्टान्तोंद्वारा आचायने नौ पदार्थोकी आवश्यकता भी बतला दी है । विना नौ पदार्थोके स्वीकार किये शुद्ध आत्माकी भी प्रतीति नहीं होती है । इसलिये नव पदार्थ भी कहने योग्य हैं।
___ एकान्त कथन और उसका परिहारकैश्चित्तु कल्प्यते मोहाद्वक्तव्यानि पदानि न । हेयानीति यतस्तेभ्यः शुद्धमन्यत्र सर्वतः॥ १७४ ॥ तदसत्सर्वतस्त्यागः स्यादसिद्धः प्रमाणतः।
तथा तेभ्योऽतिरिक्तस्य, शुद्धस्यानुपलब्धितः॥ १७५॥
अर्थ-मोहनीय कर्मकी तीव्रतासे भूले हुए कोई तो कहते हैं कि ये नव पदार्थ नहीं कहना चाहिये । क्योंकि ये सर्वथा त्याज्य हैं । इन नवों पदार्थोंसे आत्माका शुद्ध निजरूप सर्वथा भिन्न ही है।
आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना सर्वथा अयुक्त है । इन नव पदार्थोंको सर्वथा ही न कहा जाय अथवा ये सर्वथा ही त्यागने योग्य हैं यह बात किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होती है। और उन नौ पदार्थोके छोड़नेपर शुद्ध आत्माकी भी प्रतीति नहीं हो सकती है।
भावार्थ-अशुद्धताके माननेपर ही शुद्धताकी उपलब्धि होती है अन्यथा नहीं, क्योंकि ये दोनों शब्द सापेक्ष हैं । इसलिये व्यवहार नयसे ये नव पदार्थ भी ठीक हैं और निश्चय नयसे शुद्ध आत्मा ही उपादेय है ।
नौ पदार्थोंके नहीं मानने और भी दोषनावश्यं वाच्यता सिद्धयेत्सर्वतो हेयवस्तुनि ।
नान्धकारेऽप्रविष्टस्य प्रकाशानुभवो मनाक् ॥ १७६ ॥
अर्थ-इन नौ पदार्थोको निन्द्य तथा त्यागने योग्य बतलाया है और शुद्धात्माको उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य बतलाया है । यदि इनको सर्वथा ही छोड़ दिया जाय तो इनमें त्याग करनेका उपदेश भी किस प्रकार सिद्ध हो सकता है ? और शुद्ध आत्मा में