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अध्याय । ] सुबोधिनी टीका।
[ ५१ उभयं चेक्रमेणेह सिद्ध न्यायाद्विवक्षितम् । . शुडमात्रमुपादेयं हेयं शुद्धेतरं तदा ॥ १४६ ॥ योगपद्येपि तद्वैतं न समीहितसिद्धये । केवलं शुद्धमादेयं नादेयं तत्परं यतः ॥ १४७॥ नैकस्यैकपदे स्तो दे क्रिये वा कर्मणी ततः। योगपद्यमसिद्धं स्याद्वैताद्वैतस्य का कथा ॥ १४८ ॥ ततोऽनन्यगतेायाच्छुद्धः सम्यक्त्वगोचरः।
तवाचकश्च यः कोपि वाच्यः शुद्धनयोपि सः ॥ १४९ ॥
अर्थ-शंकाकार कहता है कि निश्चयनयसे (वास्तवमें) उपराग इस जीवात्वामें है या नहीं है ? अथवा उपराग और अनुपराग (शुद्धता) दोनों है ? अथवा क्या दोनों ही नहीं है ? दोनों है तो क्रमसे हैं या एक साथ ? यदि वास्तवमें उपराग है तो फिर उसमें अनादर (अग्राह्यता) क्यों किया जाता है ? यदि वास्तवमें व्यवहारनयका विषय भूत उपराग कोई वस्तु नहीं है, तो उसमें अनादर भी सिद्ध नहीं होता । क्योंकि अनादर उसीका किया जाता है जो कि कुछ चीज हो । जत्र निश्चय नयसे उपराग कोई चीज ही नहीं है तो अनादर किसका ? दूसरी बात यह है कि यदि उपराग माना भी जाय तो भी नौ पदार्थोंमें ग्राह्यता नहीं आती, क्योंकि शुद्ध पदार्थके सिवाय दूसरी जगह नयका अधिकार ही नहीं है ? (शङ्काकारकी यह शङ्का केवल शुद्ध नयको ध्यानमें रखकर ही की गई है) यदि उपराग नहीं माना जाय तब तो ये जीवके नौ स्थान किसी प्रकार भी नहीं बन सक्ते हैं क्योंकि जिसका कारण ही नहीं है उसका कार्य भी नहीं हो सक्ता है। - यदि शुद्धता और अशुद्धता (उपराग) दोनोंहीको माना जावे, परन्तु क्रमसे माना जावे तो भी न्यायसे शुद्ध मात्र ही उपादेय (ग्राह्य ) सिद्ध होगा, और शुद्धसे भिन्न अशुद्ध त्याज्य होगा ? . यदि शुद्धता और उपराग जन्य अशुद्धता, इन दोनोंको एक साथ ही माना जावे तो भी दोनोंसे हमारा अभीष्ट सिद्ध न होगा, उस समय भी शुद्ध ही ग्राह्य होगा और अशुद्ध अग्राह्य होगा?
एक बात यह भी है कि एक पदार्थके एक स्थानमें दो क्रियायें अथवा दो कर्म रह भी नहीं सकते हैं इसलिये जीवमें एक साथ शुद्धता और अशुद्धता नहीं बन सक्ती, फिर " दोनोंमेंसे शुद्ध ही ग्राह्य होगा” इत्यादि द्वैताद्वैतकी कथा तो पीछे है।
इसलिये अनन्य गति न्यायसे अर्थात् अन्यत्र गति न होनेसे अथवा घूम फिरकर वहीं