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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका।
भावार्थ-व्यवहार नय मिथ्या है। इसलिये उसके माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है । सम्यग्दर्शनका विषय साक्षात् शुद्ध नय ही है । इस लिये उसे ही मानना चाहिये ?
उत्तरसत्यं शुद्धनयः श्रेयान् न श्रेयानितरो नयः।
अपि न्यायवलादस्ति नयः श्रेयानिवेतरः॥१३७॥
अर्थ-यह बात ठीक है कि शुद्ध नय उत्तम है, उसीसे वास्तविक वस्तुबोध होता है और यह भी ठीक है कि व्यवहार नय वास्तविक नहीं है। परन्तु शुद्ध नयके समान अशुद्ध नय भी न्यायके बलसे मानना ही पड़ता है।
भावार्थ-शुद्ध और अशुद्ध ये दोनों ही प्रतिपक्षी हैं इसलिये शुद्ध कहनेसे ही अशुद्धका ग्रहण हो जाता है । अतः व्यवहार नय चाहे अयथार्थ और लाभकारी न भी हो तथापि न्यायदृष्टिसे मानना ही पड़ता है। दूसरी बात यह भी है कि व्यवहारके किना स्वीकार किये निश्चय भी नहीं बनता है । यही बात नीचे बतलाते हैं
तद्यथानादिसन्तानबन्धपर्यायमात्रतः। __एको विवक्षितो जीवः स्मृता नव पदा अमी ॥ १८ ॥ __ अर्थ-एक ही जीव अनादि सन्तान रूपसे प्राप्त बन्धपर्यायकी अपेक्षासे जब कहा जाता है तब वही जीव नव पदार्थ रूपसे स्मरण किया जाता है।
भावार्थ-व्यवहार नयसे ही जीवका अनादि कालसे बन्ध हो रहा है और उसी बन्धकी अपेक्षासे इस एक जीवकी ही नौ अवस्थायें हो जाती हैं । उन अवस्था विशेषोंका नाम ही नौ पदार्थ है । इसीको नीचे पुनः दिखलाते हैं--
किञ्च पर्यायधर्माणो नवामी पद संज्ञकाः।
उपराक्तरुपाधिः स्यान्नात्र पर्यायमात्रता ॥ १३९॥
अर्थ-अथवा ये नौ पदार्थ जीवकी पयायें हैं । इतना विशेष है कि ये केवल जीवकी पर्यायें ही नहीं है किन्तु इन पर्यायोंमें उपराग (कर्ममल) रूप उपाधि लगी हुई है। उपरागोपाधि सहित पर्यायोंको ही नौ पदार्थ कहते हैं।
___उपरागोपाधि आसिद्ध नहीं है... - नात्रासिद्धमुपाधित्वं सोपरक्तस्तथा स्वतः।।
यतो नत पदव्यासमव्याप्तं पर्ययेषु तत् ॥ १४० ॥ अर्थ-संसारी जीवके उपराग रूप उपाधि असिद्ध नहीं है किन्तु स्वत: सिद्ध है।