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पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा इस उपाधिका सम्बन्ध इन नौ पदार्थों ( अशुद्ध जीवकी पर्यायों ) में ही है। जीवकी सभी पर्यायोंमें नहीं है । क्योंकि जीवकी शुद्ध पर्यायमें इसका बिलकुल सम्क्य नहीं है।
___ उपाधि मानना आवश्यक हैसोपरक्तरुपाधित्वान्नादरश्चेद्विधीयते । क्क पदानि नवामूनि जीवः शुद्धोनुभूयते ॥ १४१ ॥
अर्थ-व्यवहार दृष्टिसे जीव उपराग-उपाधिवाला है। यदि उपाधि होनेसे उसका अनादर किया जाय अर्थात् उसे न माना जाय, तो ये जीवकी नौ अवस्थायें भी नहीं हो सक्ती हैं । सदा शुद्ध जीवका ही अनुभव होना चाहिये । अथवा नौ पदार्थोके असिद्ध होनेपर शुद्ध जीवका भी अनुभव नहीं हो सक्ता है।
भावार्थ-शुद्धता प्राप्त करनेके लिये अशुद्धता कारण है । यदि अशुद्धताको स्वीकार न किया जाय तो शुद्धता भी नहीं हो सक्ती । इसलिये व्यवहार नयको मानते हुए ही निश्चयमार्गका बोध होता है । जिन्होंने व्यवहारको सर्वथा कुछ नहीं समझा है वास्तवमें वे निश्चय तक भी नहीं पहुंच सके हैं । व्यवहार और निश्चय नयके विषयमें पहले अध्यायमें इसी ग्रन्थमें बहुत खुलासा किया गया है । संक्षिप्त स्वरूप यही पड़ता है कि व्यवहार नयका जो विषय है उसमेंसे यदि सभी विकल्पजालोंको दूर कर दिया जाय तो वही निश्चय नयका विषय हो जाता है।
जिस प्रकार तृणकी अग्नि, कण्डेकी अग्नि, कोयलेकी अग्नि, पत्तोंकी अग्नि, ये अग्नि विकल्प व्यवहार नयका विषय है। इसमेंसे सभी विकल्पोंको दूर कर शुद्ध अग्नि स्वरूप लिया जाय तो निश्चयका विषय हो जाता है । इसलिये व्यवहारको सर्वथा मिथ्या समझना नितान्त भूल है । हां अन्तमें निश्चय ही उपादेय अवश्य है ।
___ शङ्काकारननूपरक्तिरस्तीति किंवा नास्तीति तत्त्वतः । उभयं नोभयं किंवा तक्रमणाक्रमेण किम् ॥ १४२॥ अस्तीति चेत्तदा तस्यां सत्यां कथमनादरः। नास्तीति चेदसत्त्वेस्याः सिद्धो नानादरो नयात् ॥ १४३ ॥ सत्यामुपरक्तौ तस्यां नादेयानि पदानि वै। शुद्धादन्यत्र सर्वत्र नयस्यानधिकारतः ॥ १४४ ॥ असत्यामुपरक्तौ वा नैवामूनि पदानि च। हेतुशून्याविनाभूतकार्यशून्यस्य दर्शनात् ॥ १४५ ॥