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पञ्चाध्यायी।
[ दूसरी आजानेसे शुद्ध ही एक पदार्थ मानना चाहिये, वही सम्यग्दर्शनका विषय है । उसी पदार्थका कहनेवाला यदि कोई नय है तो केवल शुद्धनय (निश्चयनय) है ? !
भावार्थ-उपर्युक्त कथनसे शङ्काकारका अभिप्राय केवल शुद्धनयको मानकर शुद्ध जीवकी ग्राह्यतासे है। उसकी दृष्टिमें व्यवहार नय सर्वथा मिथ्या है, इसी लिये उसकी दृष्टिमें नव पदार्थ अर्थात् जीवकी अशुद्धता भी कोई वस्तु नहीं है । आचार्य इसका खण्डन नीचे करते हैं
उत्तर
मै तनम्बयासिडेः शुद्धाशुद्धत्वयोईयोः । विरोधेप्यविरोधः स्यान्मिय सापेक्षतः सतः ॥ १५०॥
अर्थ-शाकारका उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि शुद्धता और अशुद्धता इन दोनोंमेंसे किसी एकको म माना जाय अथवा इन दोनोंका कार्य कारण भाव न माना जाय तो काम नहीं चल सक्ता । ये दोनों ही अनन्यथा सिद्ध हैं अर्थात् दोनों ही आवश्यक हैं। दोनोंके माननमें अशुद्धता पक्षमें जो शङ्काकारने विरोध बतलाया है सो भी अविरोध ही है पदार्थ परस्परकी अपेक्षाको लिये हुए हैं इसलिये विरोध नहीं रहता किन्तु अपेक्षाकृत भेदसे दोनों ही ठीक हैं।
नासिडानन्यथासिडिस्तव्योरेकवस्तुतः।
यविशेषेपि सामान्यमेकमात्रं प्रतीयते ॥ १५१॥ अर्थ--शुद्धता और अशुद्धता ये दोनों ही आवश्यक हैं यह बात भी असिद्ध नहीं है क्योंकि दोनों एक ही वस्तु तो पड़ती हैं । उक्त दोनों ही भेद जीवकी अवस्था विशेष ही तो हैं। इन भेदोंकी अपेक्षासे जीव अनेक होनेपर भी सामान्य रीतिसे केवल एक ही प्रतीत होता है।
• इसीका खुलासा. तद्यथा नव तत्त्वानि केवलं जीवपुद्गलौ।
स्वद्रव्याकैरनन्यस्वावस्तुतः कर्तृकर्मणोः ॥ १५२॥
अर्थ-वास्तवमें विचार किया जाय तो ये नौ भी पदार्थ (अशुद्ध-अवस्था) केवल जीव और पुद्गल दो द्रव्य रूप ही पड़ते हैं, और कर्ता तथा कर्म ये वास्तवमें अपने द्रव्यादिकसे अभिन्न होते हैं। - भावा---पहले शङ्काकास्ने यह कहा था कि एक वस्तु ही कर्ता और कर्म कैसे हो सक्ती है ? इसीका यह उत्तर है कि जीव कर्ता है और पुद्गल कर्म है। कर्तृत्व जीवसे अभिन्न है और कर्मत्व पुगुलसे अमिता है । तथा इन दोनोंके मेलसे ही नौ पदार्थ होते हैं इसलिये दोनोंकी मिली हुई एक अवस्थामें कर्ता, कर्मके रहने में कोई विरोध नहीं रहता ।