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पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा रा
है । इसलिये अशुद्धतामें बन्धकी और बन्धमें अशुद्धताकी अपेक्षा पढ़नेसे एक भी सिद्ध नहीं होता, बस यही अन्योन्याश्रय दोष है । यदि जीव कर्मका सम्बन्ध अनादि माना जाय तो यह दोष सर्वथा नहीं आता ।
दूसरी बात यह है कि सादि सम्बन्ध माननेसे पहले तो शुद्ध आत्मामें बन्ध हो नहीं सक्ता क्योंकि विना कारणके कार्य होता ही नहीं । थोड़ी देरके लिये यह भी मान लिया जाय कि विना रागद्वेष रूप कारणके शुद्ध आत्मा भी बन्ध करता है तो फिर विना कारणसे होनेवाला वह बन्ध किस तरह छूट सक्ता है ? यदि रागद्वेषरूप कारणोंसे बन्ध माना जाय तब तो उन कारणोंके हटने पर बन्धरूप कार्य भी हट जाता है । परन्तु बिना कारण से होनेवाला बन्ध दूर हो सक्ता है या नहीं ऐसी अवस्था में इसका कोई नियम नहीं है । इसलिये मोक्ष होनेका भी कोई निश्चय नहीं है । इस तरह सादि बन्ध माननेमें और भी अनेक दोष आते हैं ।
पुगलको शुद्ध माननेमें दोष
अथ चेत्पुद्गलः शुद्धः सर्वतः प्रागनादितः ।
तोर्विना यथा ज्ञानं तथा क्रोधादिरात्मनः ॥ ३८ ॥
अर्थ — यदि कोई यह कहे कि पुद्गल अनादिसे सदा शुद्ध ही रहता है, ऐसा कहने बाले मत आत्माके साथ कर्मोंका सम्बन्ध भी नहीं बनेगा । फिर तो विना कारण जिस प्रकार आत्माका ज्ञान स्वाभाविक गुण है उसी प्रकार क्रोधादिक भी आत्माके स्वाभाविक गुण ही ठहरेंगे ।
भावार्थ -- पुद्गलकी कर्म रूप अशुद्ध पर्यायके निमित्तसे ही आत्मामें क्रोधादिक होते हैं ऐसा माननेसे तो क्रोधादिक आत्माके स्वभाव नहीं ठहरते हैं । परन्तु पुद्गलको शुद्ध मान
से आत्मामें विकार करने वाला फिर कोई पदार्थ नहीं ठहरता । ऐसी अवस्थामें क्रोधादिकका हेतु आत्मा ही पड़ेगा और क्रोध मान माया लोभ आदि आत्माके स्वभाव समझे जांयगे यह बात प्रमाण विरुद्ध है ।
एवं बन्धस्य नित्यत्वं हेतोः सद्भावतोऽथवा ।
द्रव्याभावो गुणाभावे क्रोधादीनामदर्शनात् ॥ ३९ ॥ अर्थ–यदि पुद्गलको अनादिसे शुद्ध माना जाय और शुद्ध अवस्था में भी उसका आत्मा बन्ध माना जाय तो वह बन्ध सदा रहेगा, क्योंकि शुद्ध पुद्गल रूप हेतुके सद्भाकौन हटानेवाला है ? पुगलकी शुद्धता स्वाभाविक है वह सदा भी रह सक्ती है, और की सत्ता में कार्य भी रहेगा ही ।
यदि बन्ध ही न माना जाय तो " ज्ञानकी तरह क्रोधादिक भी आत्माके ही गुण ठहरेंगे " वही दोष जो कि पहले दलोक में कह चुके हैं फिर भी आता है और क्रोधादिक्को