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अध्याय । सुबोधिनी टीका।
[१५ अर्थ-यह जीवात्मा भी अमादि है और पुद्गल भी अनादि है। इसलिये दोनोंका सम्बन्ध रूप बन्ध भी अनादि है।
भावार्थ-जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि कालसे है। यदि इनका सम्बन्ध सादि भात् किसी काल विशेषसे हुआ माना जावे तो अनेक दोष आते हैं। इसी बातको ग्रन्थकार सायं आगे दिखलाते हैं।
छयोरनादिसम्बन्धः कनकोपलसन्निभः।
अन्यथा दोषएव स्यादितरेतरसंश्रयः ।। ३६ ॥
अर्थ-जीव और कर्म दोनोंका सम्बन्ध अनादि कालसे चला आरहा है। यह सम्बम उसी प्रकार है जिस प्रकार कि कनकपाषाणका सम्बन्ध अनादिकालीन होता है । यदि जीव पुद्गलका सम्बन्ध अनादिसे न माना जाय तो अन्योन्याश्रय दोष आता है।
भावार्थ--एक पत्थर ऐसा होता है जिसमें सोना मिला रहता है, उसीको कनकपाषाण कहते हैं । कनकपाषाण खानिसे मिला हुआ ही निकलता है । जिस प्रकार सोनेका और पत्थरका हमेशासे सम्बन्ध है उसी प्रकार जीव और कर्मका भी हमेशासे सम्बन्धहै । यदि जीव कर्मका सम्बन्ध अनादिसे न माना जावे तो अन्योन्याश्रय दोष आता है। *
अन्योन्याश्रय दोषतद्यथा यदि निष्कर्मा जीवः प्रागेव तादृशः।।
बन्धाभावेथ शुद्धेपि बन्धश्चेन्नित्तिः कथम् ।। ३७॥ अर्थ-यदि जीव पहले कर्मरहित अर्थात् शुद्ध माना जाय तो वन्ध नहीं हो सकता, और यदि शुद्ध होनेपर भी उसके बन्ध मान लिया जाय तो फिर मोक्ष किस प्रकार हो सकती है ?
भावार्थ-आत्माका कर्मके साथ जो बन्ध होता है वह अशुद्ध अवस्थामें होता है। मदि कर्मबन्धसे पहले आत्माको शुद्ध माना जाय तो बन्ध नहीं हो सकता ? क्योंकि बन्ध अशुद्ध परिणामोंसे ही होता है । इसलिये बन्ध होनेमें तो अशुद्धताकी आवश्यकता पड़ती है और अशुद्धतामें बन्धकी आवश्यकता पड़ती है । क्तिा पूर्वबन्धके शुद्ध आत्मामें अशुद्धता आ नहीं सक्ती । प्रदि बिना बन्धके शुद्ध आत्मामें भी अशुद्धता आने लगे तो जो आत्मायें मल हो चुकी हैं अर्थात् सिद्ध हैं वे भी फिर अशुद्ध हो जायगी और अशुद्ध होनेपर बन्ध भी करती पहेंगी। फिर तो संसारी और मुक्त जीवमें कोई अन्तर नहीं रहेगा । इसलिये बन्धरूप कार्य के लिये अशुद्धता रूप कारणकी आवश्यकता है और अशुद्धता रूप कार्यके लिये पूर्वबन्ध रूप कारणकी आवश्यकता है। विना पूर्व कर्मके बंधे हुए अशुद्धता किसी प्रकार नहीं आसकती
_* दो पदार्थोंमें परस्पर एक दूसैरेकी अपेक्षा रहमेसे अन्योन्याश्रय दोष आता है । इस 'दर्षिकी संतामें एक पदार्थकी भी सिद्धि नहीं हो पाती ।