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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका । त्य है इसका कभी भी नाश नहीं होता है केवल अवस्था भेद होता रहता है।
फिर भी जीवका ही निरूपणसाधारणगुणोपेतोप्यसाधारणधर्मभाक् । विश्वरूपोप्यविश्वस्थः सर्वोपेक्षोपि सर्ववित् ॥ ३१॥
अर्थ-यह जीव साधारण गुण सहित है और असाधारण गुण सहित भी है। विश्व ( जगत् ) रूप है परन्तु विश्वमें ठहरा नहीं है। सबसे उपेक्षा रखनेवाला है, तो भी सबका जाननेवाला है। . भावार्थ-यहांपर आचार्यने साहित्यकी छटा दिखाते हुए जीवका स्वरूप कहा है। विरोधालङ्कारमें एक बातको पहले दिखलाते हैं फिर उससे विपरीत ही कह देते हैं परन्तु वास्तवमें वह विपरीत नहीं होता । केवल विपरीत सरीखा दिखता है। जैसे यहांपर ही जीवका स्वरूप दिखाते हुए कहा है कि वह साधारण धर्मवाला है तो भी असाधारण धर्मवाला है। जो साधारण धर्मवाला होगा वह असाधारण धर्मवाला कैसे हो संक्ता है ऐसा विरोध सा दिखता है परन्तु वह विरोध नहीं है केवल अलंकारकी झलक है । यहां पर साहित्यकी न मुख्यता है और न आवश्यकता है इसलिये उसे छोड़कर श्लोकका आशय लिखा जाता है ।
प्रत्येक द्रव्यमें अनन्त गुण होते हैं अथवा यों कहना चाहिये कि वह द्रव्य अनन्त गुण स्वरूप ही है । उन गुणोंमें कुछ साधारण गुण होते हैं और कुछ विशेष गुण होते हैं। जो समान रीतिसे सभी द्रव्योंमें पाये जाय उन्हें साधारण गुण कहते हैं। इन्हींका दूसरा नाम सामान्य गुण भी है। और जो खास २ वस्तुमें ही पाये जाय उन्हें विशेष गुण कहते हैं। जीव द्रव्यमें सामान्य गुण भी हैं और विशेष गुण भी है । अस्तित्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व आदिक सामान्य गुण हैं । ये गुण समान रीतिसे सभी द्रव्योंमें पाये जाते हैं, और ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदिक जीवके विशेष गुण हैं, ये जीवको छोड़कर अन्यत्र नहीं पाये जाते । इसलिये जीवमें साधारण गुण और विशेष गुण दोनों हैं । लोक असंख्यात प्रदेशी है और जीव भी लोकके बराबर असंख्यात प्रदेशी है इसलिये यह जीव विश्वरूप है । अर्थात् लोक स्वरूप है तथापि लोकभरमें ठहरा हुआ नहीं है किन्तु लोकके असंख्यातवें भाग स्थानमें है । अथवा ज्ञानकी अपेक्षा विश्वरूप है परन्तु विश्वसे जुदा है । यह जीव सर्व पदार्थोसे उपेक्षित है अर्थात् किसी पदार्थसे इसका सम्बन्ध नहीं है तथापि यह जीव सब पदार्थोंको जाननेवाला है।
फिर भी जीवका स्वरूपअसंख्यातप्रदेशोपि स्थादखण्डप्रदेशवान् । सर्वद्रव्यातिरिक्तोपि तन्मध्ये संस्थितोपि च ॥ ३२॥