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पञ्चाध्यायी।
[ दूसरी जो कुछ हम कहेंगे वह हमारी निनकी कल्पना नहीं समझना चाहिये, किन्तु युक्ति, आगम, अनुभव और पूर्वाचार्योंके कथनके अनुकूल ही हम कहेंगे । इनसे विरुद्ध नहीं।
भावार्थ-पदार्थकी सिद्धि कई प्रकारसे होती है । कोई पदार्थ युक्तिसे सिद्ध होते हैं, कोई अनुभक्से सिद्ध होते हैं, और कोई आगमसे सिद्ध होते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि जो हम चेतन पदार्थ ( जीव ) का स्वरूप कहेंगे उसमें युक्ति प्रमाण भी होगा, आगम प्रमाण भी होगा, और अनुभव प्रमाण भी होगा। साथ ही पूर्वके महर्षियोंकी विवेचना (कथन ) से अविरुद्धता भी रहेगी । इसलिये जब हमारे कथनमें युक्ति, आगम, अनुभव और पूर्वाचार्योंके कथनसे अविरुद्धता है तो वह अग्राह्य किसी प्रकार नहीं हो सकता । इस कथनसे आचार्यने उत्सूत्रता और अयुक्तकथनका परिहार किया है।
सप्त तत्वोंमें जीवकी मुख्यताप्रागुद्देश्यः स जीवोस्ति ततोऽजीवस्ततः क्रमात् ।
आस्रवाद्या यतस्तेषां जीवोधिष्ठानमन्वयात् ॥ २९॥
अर्थ—पहले जीवतत्त्वका निरूपण किया जाता है फिर अनीव तत्त्वका किया जायगा। उसके बाद क्रमसे आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्षका कथन किया जायगा । जीवका निरूपण सबसे प्रथम रखनेका कारण भी यही है कि सम्पूर्ण तत्वोंका आधार मुख्य रीतिसे जीव ही पड़ता है सातों तत्वोंमें जीवका ही सम्बन्ध चला जाता है।
भावार्थ-वास्तव दृष्टिसे विचार किया जाय तो सातों ही तत्व जीव द्रव्यकी ही अवस्था विशेष है । इस लिये सातों तत्वोंमें जीवतत्व ही मुख्यता रखता है इसलिये सबसे प्रथम उसीका कथन किया जाता है।
जीव निरूपणअस्ति जीवः स्वतस्सिडौऽनाद्यनन्तोप्यमूर्तिमान । ज्ञानायनन्तधर्मादि रूढत्वाद्रव्यमव्ययम् ॥ ३० ॥
अर्थ-जीव द्रव्य स्वतः सिद्ध है। इसकी आदि नहीं है इसी प्रकार अन्त भी नहीं है । यह जीव अमूर्त है, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादिक अनन्त धर्मात्मक है इसी लिये यह नाशरहित द्रव्य है। - भावार्थ-चार्वाक या अन्य कोई नास्तिक कहते हैं कि जीव द्रव्य स्वतन्त्र कोई नहीं है किन्तु पंचभूतसे मिलकर बन जाता है । इसका खंडन करनेके लिये आचार्यने स्वतः सिद्ध पद दिया है । यह द्रव्य किसीसे किया हुआ नहीं है किन्तु अपने आप सिद्ध है, इसी लिये इसकी न आदि है और न अन्त है। पुद्गल द्रव्यकी तरह इसकी रूपादिक मूर्ति भी नहीं है । यह द्रव्य ज्ञानादिक अनन्त गुण स्वरूप है । गुण नित्य होते हैं इस लिये जीव द्रव्य भी नि