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अध्याय । ]
सुबोधिनीटीका।
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भावबन्ध और द्रव्य बन्धका स्वरूपरागात्मा भावबन्धः स जीवबन्ध इति स्मृतः। द्रव्यं पौगालिकः पिण्डो बन्धस्तच्छक्तिरेव वा ॥ ४७ ॥
अर्थ-जो आत्माका रागद्वेष रूप परिणाम है वही भाववन्ध कहलाता है। उसीको जीवबन्ध भी कहते हैं। 'द्रव्यबन्ध ' इस पदमें पड़ा हुआ जो द्रव्य शब्द है उसका अर्थ तो पुद्गल पिण्ड है। उस पुद्गल पिण्डमें जो आत्माके साथ बन्ध होनेकी शक्ति है वही बन्ध शब्दका अर्थ है।
भावार्थ-आत्माका रागद्वेष रूप जो परिणाम है वह तो भावबन्ध है। और संसारमें भरी हुई वे पुद्गल वर्गणायें जो कि आत्माके साथ बँध जानेकी शक्ति रखती हैं द्रव्य बन्ध कहलाती हैं । सभी पुद्गलों में आत्माके साथ बन्ध होनेकी शक्ति नहीं है। पुद्गलके तेईस भेद बतलाये गये हैं। उनमें पांच वर्गणायें ऐसी हैं जिनसे कि जीवका सम्बन्ध है बाकी पुद्गलसे नहीं । वे वर्गणायें आहार वर्गणा, तैजस वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा, कार्माण वर्गणा, इन नामोंसे प्रसिद्ध हैं । ये ही पांचों आत्माके साथ बँध होनेकी शक्ति रखती हैं । रागद्वेष क्या वस्तु है इस विषयको स्वयं ग्रन्थकार आगे लिखेंगे ।
उभव बन्धइतरेतरबन्धश्च देशानां तद्वयोमिथः।
बन्ध्यबन्धकभावः स्याद्भावबन्धनिमित्ततः॥४८॥
अर्थ-भाववन्धके निमित्तसे पुद्गल-कर्म और जीवके प्रदेशोंका जो परस्पर बन्ध्य-बन्धक भाव अर्थात् एक रूपसे मिल जाना है वही उभय बन्ध कहलाता है।
भावार्थ-जो बांधनेवाला है वह बन्धक कहलाता है। और जो बंधनेवाला है वह बन्ध्य कहलाता है । जब बांधनेवाला आत्मा और बंधनेवाला कर्म, दोनों मिल जाते हैं तभी बध्य बन्धक भाव कहलाता है । इसीका नाम उभय वन्ध है । आत्माके प्रदेश और कर्मके प्रदेश, दोनों एक क्षेत्रावगाही अर्थात् एक रूपसे मिल जाते हैं उसीको उभय बन्ध कहते हैं। यह बन्ध भी राग द्वेष रूप भाव बन्धके निमित्तसे ही होता है।
जीव और कर्मकी सत्तानाप्यसिहं स्वतस्सिडेरस्तित्वं जीवकर्मणोः।
स्वानुभवगर्भयुक्तेवा समक्षोपलब्धितः॥४९॥
अर्थ-जीव और कर्मकी सत्ता भी असिद्ध नहीं है किन्तु स्वतः सिद्ध है । जीव भी स्वतः सिद्ध है और कर्म भी स्वतः सिद्ध है । अथवा जीव और कर्मकी सत्तामें अनेक युक्तियां हैं जो कि अपने अनुभवमें आती हैं, अथवा जीव और कर्मकी सत्तामें प्रत्यक्ष प्रमाण भी है। .