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पञ्चाध्यायी।
दसरा
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जीवका परिणमनअप्यस्त्यनादिसिद्धस्य सतः स्वाभाविकी क्रिया। .. वैभाविकी क्रिया चास्ति पारिणामिकशक्तितः॥३१॥ . अर्थ-अनादि सिद्ध सत्ता रखनेवाले इस जीवात्माके दो प्रकारकी क्रिया होती है। एक स्वाभाविकी क्रिया और दूसरी वैभाविकी क्रिया । यह दोनों प्रकारकी क्रिया शक्तियोंके परिणमनशील होनेसे होती है।
भावार्थ-सम्पूर्ण शक्तियां परिणमनशील हैं, एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थाको धारण करती रहती हैं। परिणमनके कारण ही जीवात्मामें स्वभाव परिणमन और विभाव परिणमन-दोनों प्रकारका परिणमन होता है।
वैभाविकी शक्ति आत्माका गुण हैन परं स्यात्परायत्ता सतो वैभाविकी क्रिया।
यस्मात्सतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्यैर्न शक्यते ॥ ६२.॥
अर्थ-यदि कोई वैभाविक शक्तिको पराधीन ही समझे, तो उसके लिये आचार्य कहते हैं कि वैभाविक शक्ति आत्माका ही निज गुण है क्योंकि जिसमें जो गुण नहीं है वह दूसरोंसे नहीं आ सक्ता।
भावार्थ-आत्मामें अन्य गुणोंकी तरह एक वैभाविक गुण भी है उसी वैभाविक गुणका विभाव परिणमन और स्वभाव परिणमन होता है। यदि वैभाविक गुण आत्माका निन गुण न होता तो आत्मामें विभाव-स्वभाव रूप परिणमन भी नहीं हो सकता।
शङ्काकारननु वैभाविकभावाख्या क्रिया चेत्पारिणामिकी । स्वाभाविक्याः क्रियायाश्च का शेषो हि विशेषभाक् ॥६३ ॥
अर्थ-शंकाकार कहता है कि यदि वैभाविक नामकी शक्ति ही परिणमन शील है तो उसीका विभाव और स्वभाव परिणमन होगा । फिर स्वभावकी शक्तिमें क्या विशेषता बाकी रहेगी ?
फिर भी शंकाकारअपि चार्थ परिच्छेदि ज्ञानं स्वं लक्षणं चितः।
ज्ञेयाकारक्रिया चास्य कुतो वैभाविकी क्रिया ॥ ६४॥ - अर्थ-शंकाकारका कहना है कि पदार्थको जाननेवाला जो ज्ञान है वह इस जीवात्माका निन लक्षण है । उस ज्ञानमें जो ज्ञेयके आकार क्रिया होती है वह क्रिया वैभाविकी कैसे कही जा सक्ती है ?