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पञ्चाध्यायी ।
उत्तर-
नैव यतोस्ति परिणामि शक्तिजात सतीऽखिलम् । कथं वैभाविक शक्तिर्न स्थाई पारिणामिकी ॥ ८८ ॥
[ दूसरा
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अर्थ - शङ्काकारका यह कहना कि वैभाविक शक्ति विना कर्मदयके चित्रकी तरह कूटस्थ - परिणाम शून्य रह जाती है, सर्वथा युक्ति-आगम शून्य है । क्योंकि जितना भी शक्ति समूह है सब परिणमन शील है । पदार्थ में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है जो प्रतिक्षण अपनी अवस्थाको न बदलती हो । फिर वैभाविकी शक्ति परिणमन शील क्यों न होगी। जब वह परिणमन शील है तो ""कर्मोके अनुदयमें चित्रकी तरह परिणाम रहित हो जाती है यह शङ्काकारको शङ्का नितान्त व्यर्थ है ।
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और ऐसा भी नहीं है कि कोई शक्ति परिणमनवाली हो और कोई न ही, सभी शक्तियां परिणमन शील हैं, इसी बात को नीचे दिखाते हैं
शक्तिको परिणाम रहित मानने में कोई प्रमाण नहीं हैंपरिणामात्मिका काचिच्छक्तिश्चाऽपारिणामिकी । तदूग्राहकप्रमाणस्याऽभावात्संदृष्ट्यभावतः ॥ ८९ ॥
अर्थ — द्रव्यमें जितनी शक्तियां हैं सभी प्रतिक्षण परिणमन करती रहती हैं। किसी शक्तिको परिणमन शील माना जाय और किसीको नहीं माना जाय या कुछ कालके लिये परिणमन शील माना जाय, इसमें कोई प्रमाण नहीं है और न कोई दृष्टान्त ही है।
भावार्थ — वस्तुमें दो प्रकारकी पर्यायें होती हैं एक व्यंजन पर्याय, दूसरी अर्थ पर्याय । प्रदेशवत्त्व गुणके विकारको व्यञ्जन पर्याय कहते हैं, अर्थात् समग्र वस्तुके अवस्था भेदको व्यञ्जन पर्याय कहते हैं । तथा उस द्रव्यमें रहनेवाले अनन्त गुणोंकी पर्यायको अर्थ पर्याय कहते हैं । उक्त दोनों प्रकारकी पर्याये वस्तुमें प्रति समय हुआ करती हैं । फलितार्थ
अर्ध
तस्माद्वैभाविकी शक्तिः स्वयं स्वाभाविकी भवेत् । परिणामात्मिका भावैरभावे कृत्स्नकर्मणाम् ॥ ९० ॥ — जब उपर्युक्त कथनानुसार सभी शक्तियों का परिणमन होता है। तब वैभाविकी शक्तिका भी प्रतिक्षण परिणमन सिद्ध हो चुका । इसलिये फलितार्थ यह हुआ कि वैभाविकी शक्ति अवस्था स्वभाव विभावमें आया करती है। जब कमका सम्बन्ध रहता है तब तो उस वैभाविकी शक्तिका विभावरूप परिणमन होता है और जब सम्पूर्ण कमौका अभाव होता है तथा आत्मा अपने स्वाभाविक शुद्धभावका अधिकारी हो जाता है, उस