________________
३८)
पंखाध्यायी।
-
सिद्धि नहीं हो सकती है । इस लिये बद्ध जीव और मुक्त जीवमें वास्तविक भेद है। तथा जीव और पुद्गलमें विजातीयपना होने पर भी परस्पर इस प्रकारका निमित्त नैमित्तिक भाव है जिससे कि संसारी जीवोंकी कषायका निमित्त पाकर पुदल कर्म जीवोंके साथ बन्धको प्राप्त हो जाता है, और उन बंधे हुए कर्मोके परिपाक कालमें जीलोंमें कयायादि रूप विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
बद्ध और मुक्तका स्वरूपबडास्माद्धयोर्भावः स्यादबोप्यबद्धयोः। सानुकूलतया सन्धो न बन्धः प्रतिकूलयोः ॥ १०२॥
अर्थ-बधे हुए दो पदार्थोकी अवस्था विशेषको बद्ध कहते हैं। इसी प्रकार नहीं बधे हुए दो पदार्थाकी अवस्थाको अबद्ध कहते हैं। बन्ध वहीं होता है जहां पर कि अनुकूलता होती है । प्रतिकूल पदार्थोंका बन्ध नहीं होता है।
भावार्थ-जहां अनुकूल योग्य सामग्री जुट जाती है वहीं पर बन्ध होता है, जहां योग्य सामग्री नहीं मिलती वहां बन्धकी योग्यता भी नहीं है।
बन्ध-भेदअर्थतस्त्रिविधो बन्यो लाच्यं तहक्षणं त्रयम् ।
प्रत्येकं तदद्वयं यावत्तीयस्तूच्यतेऽधुना ॥१०३ ॥
अर्थ--वास्तवमें बन्ध तीन प्रकारका होता है इसी लिये उन तीनोंके जुदे जुदे तीन लक्षण भी हैं। तीनों प्रकारोंके बन्धोंमें दो बंधोंका स्वरूप तो एक एक स्वतन्त्र है। परन्तु तीसरे बन्धका स्वरूप जो कि दो के मिलनेसे होता है कहा जाता है
भावार्थ—पहले कहा जा चुका है कि भाव बन्ध, द्रव्य बन्ध और उभय बन्ध, इस प्रकार बन्धके तीन भेद हैं। उनमें भाव बन्ध और द्रव्य बन्ध में तो मोटी रीतिसे एक एक ही पदार्थ पड़ता है। क्योंकि राग द्वेषादि भावही भाव बन्ध कहलाते हैं इन भावों में आत्माकी ही मुख्यता रहती है। कर्मके निमित्तसे आत्माके चारित्र गुणके विकारको राग द्वेष कहते हैं। द्रव्य बन्ध में केवल पुद्गल ही पड़ता है। इस लिये ये दोनों बन्ध तो प्रत्येक स्वतन्त्र हैं परन्तु तीसरा बन्ध जो उभय बन्ध है वह आत्मा और पुद्गल इन दो द्रव्योंके सम्बन्धसे होता है। इस लिये उसीका स्वरूप कहा जाता है।
जीवकोभमोर्वन्धः समान्मिथः साभिलाषुकः । . जीवः कर्मनिबद्धो हि जीवबलु हि कर्म तत् ॥ १०४ ॥
. अर्थ-परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षाको लिये हुए जो जीव और कर्म दोनोंका सम्बन्ध है वही उभयबन्ध कहलाता है । जीव तो कयोंसे बँधा हुआ है और कर्म जीवसे बँधे हुए हैं।