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अध्याय । ]
सुबोधिनी का।
सर्व- कारका यह कहना कि ज्ञानमें अज्ञामला आती ही नहीं है। अमला अशुद्धता कोई चीन ही नहीं है सर्वथा मिथ्या है । क्योंकि पदार्थक सामान्य और विशेष थे दो भेद होनेपर भी कुछ और भी विशेषता है । वह विशेषता अन्वय, व्यतिरेकके द्वारा सिद्ध होती है। किस प्रकार ? लो नीचे दिखाते हैं
तत्रान्वयो पा ज्ञानमज्ञानं परहेतुतः।
अर्थाच्छीतमशीतं स्थाबन्हियोगाडि वारिवत् ॥ ११७॥
अर्थ-" यत्सत्त्वे यत्सवमन्वयः " जिसके होनेपर जो हो इसीका नाम अन्धय है। पर पदार्थकी मिमित्तसासे झान अक्षाम हो जाता है यह अन्वय यहां पर ठीक ऋटता है । जिस प्रकार ठण्डा जल अग्निके सम्बन्धसे गरम हो जाता है।
यह बात असिद्ध भी नहीं हैनासिद्धोसौ हि दृष्टान्तो ज्ञानस्याज्ञानलः संतः।
अस्त्वषस्थान्तरं तस्य यथाातप्रमात्त्वतः ॥ ११८ ॥
अर्थ-यह दृष्टान्त असिद्ध भी नहीं है । जिस समय ज्ञान अज्ञानरूपमें आता है उस समय पदार्थकी यथार्थ प्रमिति नहीं हो पाती है किन्तु अवस्थान्तर ही हो जाता है।
___व्यतिरेकव्यतिरेकोस्त्वात्मविज्ञानं यथास्वं परहेतुतः। मिथ्यावस्थाविशिष्टं स्यायचे शुद्धमेव तत् ॥ ११९ ॥
अर्थ-जिस प्रकार ज्ञानमें अन्वय घटता है उसी प्रकार व्यतिरेक भी घटताहै । म्यतिरेक उसे कहते हैं कि जिसके न होने पर जो न हो। जिस प्रकार आत्माका ज्ञान दूसरेके निमित्तसे मिथ्या-अवस्था सहित हो जाता है उसी प्रकार उस परहेतुके विमा गुद्ध ही है। अर्थात् कर्मके निमितसे ज्ञान अज्ञानरूप, और कर्मके अभाव में नान शुद्ध ज्ञानरूप रहता है। इसीका नाम अन्वय व्यतिरेक है।
भावार्थ-इस अन्वय व्यतिरेकस आत्मामें अशुद्धता पर निमित्तसे होती है यह बात अच्छी तरह बतला दी मई है । जो बात अन्बय व्यतिरकसे सिद्ध होती है यह अवश्यंभावी अथवा नियमितरूपसे सिद्ध स्वीकार की जाती है । इस लिये आत्माकी अशुद्धता अवश्य माननी पड़ती है।
शुद्ध ज्ञानका स्वरूप--- तद्यथा क्षायिकं ज्ञानं सार्थ सर्वार्थगोवरम् ।
शुई स्वजालिमात्रत्वात् अबवं शिल्पाधिलः । १२० अर्थ-सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्ष करनेवाला जो क्षायिक ज्ञान (केवलज्ञान ) है वह