________________
पश्चाध्यायी।
[ दूसरा
NNNNN
शुद्धज्ञान है। क्योंकि उसमें परनिमित्तता नहीं है। वह केवल स्वस्वरूप मात्र ही है। वही ज्ञान अबद्ध भी है। क्योंकि उसमें किसी पर पदार्थरूप उपाधिका सम्बन्ध नहीं है।
- अशुद्ध ज्ञानका स्वरूपक्षायोपशमिकं ज्ञानमक्षयात्कर्मणां सताम् ।
आत्मजातेश्युतेरेतबद्धं चाशुद्धमक्रमात् ॥ १२१ ॥ अर्थ-सर्व घाति कोका उदयाभावी क्षय होनेसे और उन्हीं सर्व घाति कोके उदय होनेसे क्षायोपशमिक कहलाता है । यह क्षायोपशमिक ज्ञान कर्म सहित है, क्योंकि सत्कर्मोंका अभी क्षय नहीं हुआ है । इसलिये यह ज्ञान अपने स्वरूपसे च्युत है अतएव बद्ध कहलाता है तथा अशुद्ध भी है।
___शुद्धता तथा अशुद्धता दोनों ही ठीक हैंनस्याच्छुडं तथाऽशुद्ध ज्ञानं चेदिति सर्वतः ।
न बन्धो न फलं तस्य बन्धहेतोरसंभवात् ॥ १२२ ॥ - अर्थ-यदि कोई यह कहे कि ज्ञान न तो शुद्ध ही है, और न अशुद्ध ही है, जैसा है वैसा ही है । तो उसके उत्तरमें यही कहा जा सक्ता है कि आत्मामें बन्ध भी नहीं है, औन न उसका फल ही है । क्योंकि बन्धका कारण ही कोई नहीं है।
भावार्थ:-बन्धका कारण अशुद्धता है यह बात पहले अच्छी तरह कही जा चुकी है । यदि अशुद्धताको न माना जावे तो बन्ध भी नहीं ठहरता, और बन्धके अभावमें बन्धका फल भी नहीं बनता।
अथचेहन्धस्तदा बन्धो बन्धो नाऽबन्ध एव यः। न शेषश्चिविशेषाणां निर्विशेषादवन्धभाक् ॥ १२३ ॥
अर्थ-यदि अशुद्धताके विना ही बन्ध हो जाय तो फिर बन्ध ही रहेगा । बन्धअबन्ध अवस्थामें कभी नहीं आ सक्ता । ऐसी अवस्थामें कोई भी जीव सम्पूर्ण रीतिसे मुक्त नहीं हो सक्ता।
भावार्थ-यदि बन्धका कारण अशुद्धता मानी जाय तब तो यह बात नहीं बनती कि बन्ध ही सदा रहेगा, अबन्ध हो ही नहीं सक्ता। क्योंकि कारणके सद्भावमें ही कार्य होता है। कारणके न रहने पर कार्य भी नहीं रह सक्ता । जब तक अशुद्धता है तभी तक बन्ध रहेगा । अशुद्धताके अभावमें बन्धका भी अभाव अवश्यंभावी है । इसलिये अशुद्धता माननी ही चाहिये।
यदि ऊपरके इलोक द्वारा ही अशुद्धताकी सिद्धि हो चुकी ऐसा कहा जाय तो इस श्लोकका दूसरा अर्थ शुद्धता-साधक भी हो जाता है । वह इस प्रकार है कि यदि अशुद्धता