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पचयाची
शङ्काकार
मनु कस्को विशेषोस्ति बडाबडत्वयोर्दयोः ↓ अस्त्यनर्थान्तरं यस्मादर्थादैक्योपलब्धितः ॥ १२८ ॥
अर्थ- शाकार कहता है कि बद्धता और अबद्धता में क्या विशेषता है ? क्योंकि हम दोनों अवस्थाओं में कोई भी भेद नहीं पाते हैं अर्थात् दोनों अवस्थायें एक ही हैं ?
उत्तर
नैवं यतो विशेषोस्ति हेतुमद्धेतुभावतः । कार्यकारणभेदाद्वा द्वयोस्तलक्षणं यथा ॥
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१२९ ॥ अर्थ-बद्धता और अबद्धताको एक ही मानना सर्वथा मिथ्या है । इन दोनों में हेतु और हेतुमान् अथवा कार्यकारणके भेदसे विशेषता है ।
भावार्थ - मुक्त अवस्थाके लिये बद्ध अवस्था कारण है इसलिये बद्धता और अबद्धता दोनों में कार्य कारणका भेद है । अब उन दोनोंका लक्षण कहा जाता है ।
बन्धका लक्षण-
बन्धः परमुणाकास क्रिया स्यात्पारिणामिकी ।
तस्यां सत्यामशुद्धत्वं तद्द्वयोः स्वगुणच्युतिः ॥ १३० ॥
अर्थ —— जीव और पुद्गलके गुणोंका परगुणाकार परिणमन होनेका नाम ही बन्ध है। जिस समय जीव और पुद्गलमें पर गुणाकार परिणमन होता है उसी समय उनमें अशुद्धता । आती है, अशुद्धतामें उन दोनोंके गुणोंकी च्युति हो जाती है अर्थात् दोनों ही अपने अपने स्वरूपको छोड़कर विकार अवस्थाको धारण कर लेते हैं ।
भावार्थ - जिस बन्धका स्वरूप यहां पर कहा गया है वह कम के रस दान होता है । जिस समय कर्मोंका विपाक काल आता है उस समय आत्माका चारित्र भ्रूण अपने स्वरूपसे च्युत होता है और कर्म अपने स्वरूप से च्युत हो जाते हैं। दोनोंकी मिली हुई रागद्वेषात्मक तीसरी ही अवस्था उस समय हो जाती है। सगद्वेष अवस्था न केवल आत्माकी है और न केवल कर्मोंकी है, किन्तु दोनोंकी है । जिस प्रकार चूना और हल्दीको साथ २ घिसनेसे चूना अपने स्वरूपको छोड़ देता है और हल्दी अपने स्वरूपको छोड़ देती है, दोनोंकी तीसरी लाल अवस्था हो जाती है । यह मोटा दृष्टान्त है, इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि जीव पुद्गलस्वरूप हो जाता हो अथवा पुगुल जीवस्वरूप हो जाता.
* पुद्गलमें अशुद्धता पुङ्गलसे भी जाती है और जीवके निमित्तसे भी आती है परन्तु जीव अशुद्धता पुद्गल के निमित्तसे ही आती है मुलके स्वतन्त्र बन्धमें स्निग्धता और रूक्षता कारण उसीसे पुद्गलमें परगुणाकारता आती है ।