________________
२८ ]
पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा
इसी प्रकार जीवोंका ज्ञान दो प्रकारका है, एक बद्ध ज्ञान दूसरा अवद्ध ज्ञान । जो ज्ञान मोहनीय कर्मसे ढका हुआ है अर्थात् जिसके साथ मोहनीय कर्म लगा हुआ है उसे तो अर्थात् बँधा हुआ ज्ञान कहते हैं और जो ज्ञान मोहनीय कर्मसे रहित हो चुका है वह ज्ञान अबद्ध कहलाता है । बद्ध और अवद्ध ज्ञानमें बड़ा अन्तर है ।
उसी अन्तरको नीचे दिखलाते हैं
मोहकर्मावृतं ज्ञानं प्रत्यर्थ परिणामि यत् ।
इष्टानिष्टार्थसंयोगात् स्वयं रज्यद्विषद्यथा ॥ ६७ ॥
अर्थ – मोहनीय कर्मसे जो ज्ञान आवृत हो रहा है वह जिस २ पदार्थको जानता है उसी २ पदार्थ में इष्ट और अनिष्ट बुद्धि होनेसे स्वयं रागद्वेष करता है ।
भावार्थ - यद्यपि प्रत्येक पदार्थको क्रम २ से जानना ऐसी योग्यता ज्ञानमें ज्ञानावrotra faमित्तसे होती है, परन्तु इष्टरूप या अनिष्टरूप जैसे पदार्थ मिलते हैं, उन पदार्थों में रागद्वेष रूप बुद्धिका होना यह वात ज्ञानमें मोहनीय कर्मके निमित्तसे आती है ।
अबद्ध ज्ञानका स्वरूप ---
तत्र ज्ञानमबद्धं स्यान्मोहकर्मातिगं यथा ।
क्षायिकं शुद्धमेवैतल्लोकालोकावभासकम् ॥ ६८ ॥
- जिस ज्ञानके साथ मोहनीय कर्मका सम्बन्ध नहीं रहा है वह अबद्ध ज्ञान कहलाता है। ऐसा ज्ञान परम शुद्ध क्षायिक ज्ञान है वही ज्ञान लोक अलोकका जाननेवाला है । भावार्थ- चार वातिया कर्मोंका नाश करनेवाले तेरहवे गुणस्थानवर्ती अरहन्त भगवान जो जगत्का प्रकाश करनेवाला केवलज्ञान है वही अबद्ध ज्ञान है ।
क्षायिक ज्ञान अबद्ध क्यों है सो बतलाते हैंनासिद्धं सिद्धदृष्टान्तात् एतद्दृष्टोपलब्धितः । शीतोष्णानुभवः स्वस्मिन् न स्यात्तज्ज्ञे परात्मनि ॥ ६९ ॥
अर्थ - क्षायिक ज्ञान अबद्ध है, उसमें इष्ट अनिष्ट रूप बुद्धि नहीं होती है यह बात असिद्ध नहीं हैं किन्तु प्रत्यक्ष सिद्ध है । हम शीत और गर्मीका अनुभव करते हैं, अर्थात् हमें ठण्ड भी लगती है और गरमी भी लगती है, परन्तु दूसरा मनुष्य जो कि हमारे शीत उष्णका परिज्ञान करता है वह शीत उष्णका अनुभव नहीं करता है ।
भावार्थ- हम किसी कष्टको भोग रहे हों तो दूसरा मनुष्य यह तो जानता है कि वह कष्ट भोग रहा है परन्तु उसे कष्ट नहीं है । कष्टका होना और कष्टका ज्ञान होना इन दोनोंमें बहुत अन्तर है । सिद्धोंका ज्ञान सांसारिक पदार्थोंको तथा नरकादिक गतियोंको