________________
M
३० पश्चाध्यायी।
[दूसरी अर्थ-आत्माके गुणोंकी च्युति होने रूप बन्धमें केवल वैभाविकी शक्ति ही कारण नहीं है अथवा उसका केवल उपयोग भी कारण नहीं है किन्तु पराधीनता ही प्रयोजक है।
भावार्थ- यदि बन्धका कारण वैभाविक शक्ति ही हो तो वह शक्ति नित्य है-सदा आत्मामें रहती है इस लिये आत्मामें सदा बन्ध ही होता रहेगा, आत्मा मुक्त कभी ग होगा । अथवा मुक्त आत्मा भी बंध करने लगेगा इस लिये केवल शक्ति ही बंधका कारण नहीं है। तथा केवल उपयोग भी नहीं है। उपयोग नाम शक्तिके परिणमनका है। वह उपयोग शक्तिकी स्वभाव अवस्थामें भी होता है और विभाव अवस्थामें भी होता है । यदि शक्तिका शुद्ध उपयोग भी बन्धका कारण हो तो भी वही दोष आता है जो कि ऊपर कहा जा चुका है। इस लिये पुद्गलके निमित्तसे जो वैभाविक शक्तिका विभाव रूप उपयोग है वही बन्धका कारण है । इस कथनसे बन्ध-कारणमें पुद्गलकी भी मुख्यता ली गई है। इसी बातको और भी स्पष्ट करते हैं। __ अस्ति वैभाविकी शक्तिस्तत्तद्रव्योपजीविनी।।
सा चेद्वन्धस्य हेतुः स्यादर्थान्मुक्तेरसंभवः ॥ ७४ ॥
अर्थ-जीव और पुद्गलका वैभाविक उपजीवी गुण है यदि वही बन्धका कारण हो तो जीवकी कभी मोक्ष ही नहीं हो सकती है।
भवार्थ-जो गुण भाव रूप होते हैं उन्हींको उपजीवी गुण कहते हैं । ज्ञान, सुख, दर्शन, वीर्य, अस्तित्व, वस्तुत्व आदि गुण सभी उपजीवी गुणहैं ये गुण अपनी सत्ता • रखते हैं । इसी प्रकारका गुण वैभाविक भी है। जो गुण भावरूप न हों केवल कर्मोंके निमित्तसे होनेवाली अवस्थाका अभाव हो जानेसे प्रगट हुए हों उन्हें प्रतिजीवीगुण कहते हैं। जैसे गोत्रके निमित्तसे आत्मा उच्च नीच कहलाता था। गोत्र कर्मके दूर हो जानेसे अब उच्च नीच नहीं कहलाता इसीका नाम अगुरुलघु है । वास्तवमें यह *अगुरुलघु गुण नहीं है किन्तु गुरु और लघुपनेके अभावको ही अगुरुलघु कहा गया है । यह भी आत्माका अभावात्मक धर्म है। वैभाविक आत्माका सत्रूप गुण है इसलिये वह बन्धका हेतु नहीं हो सकता।
उपयोग भी बन्धका कारण नहीं हैउपयोगः स्यादभिव्यक्तिः शक्तः स्वार्थाधिकारिणी ।
सैव बन्धस्य हेतुश्चेत् सर्वो बन्धः समस्यताम् ॥ ७५॥
अर्थ-शक्तिकी स्वरूपात्मक व्यक्तताका नाम भी उपयोग है । यदि वही उपयोग बन्धका हेतु हो तो सभी बंध विशिष्ट हो जायगे।
* एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप न हो जाय जिसका यह काय है जिसमें षट् गुणी हानि वृद्धि होती रहती है वह अगुरुलघु उपजीवी गुण दूसरा ही है ।