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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका।
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पना उपचारसे है, वास्तवमें नहीं है । तत्त्वदृष्टिसे देखा जाय तो ज्ञान अमूर्त ही है और अमूर्त ज्ञान मूर्त कभी नहीं हो सक्ता है क्योंकि वस्तुकी सीमाका उलचन कभी नहीं हो सक्ता है । जो मूर्त है वह सदा मूर्त ही रहता है और जो अमूर्त है वह सदा अमूर्त ही रहता है। इसलिये मतिज्ञान श्रुतज्ञान आत्माके गुण हैं वे वास्तवमें अमूर्त ही हैं केवल उपचारसे मूर्त कहलाते हैं।
___ ज्ञान मूर्त भी हैनासिडश्चोपचारोय मूर्त यत्तत्त्वतोपि च ।।
वैचित्र्याबस्तुशक्तीनां स्वतः स्वस्यापराधतः ॥ ६० ॥
अर्थ—मतिज्ञान, श्रुतज्ञानको वास्तवमें अमूर्त कहा गया है और उपचारसे मूर्त कहा गया है, उस उपचारको कुछ न समझ कर या असिद्ध समझ कर जो कोई उक्त ज्ञानोंको सर्वथा अमूर्त ही समझते हों उनके लिये कहा जाता है कि जिस उपचारसे उक्त ज्ञानोंको मृत कहा गया है वह उपचार भी असिद्ध नहीं है किन्तु सिद्ध ही है। दूसरी तरहसे यह भी कहा जा सक्ता है कि वास्तवमें भी उक्त ज्ञान मूर्त हैं। यहां पर कोई शंका करै कि वास्तवमें अमूर्त पदार्थ मूर्त कैसे हो गया ? इसके लिये आचार्य उत्तर देते हैं कि वस्तुओंकी शक्तियां विचित्र हैं किसी शक्तिका कैसा ही परिणमन होता है और किसीका कैसा ही । आत्माका ज्ञान गुण अमूर्त है वह मूर्त कैसे हो गया और वस्तुशक्तिका ऐसा विपरिणमन क्यों हुआ ? इसमें किसीका दोष नहीं है, स्वयं आत्माने अपना अपराध किया है जिससे उसे मूर्त बनना पड़ा है।
भावार्थ-" मुख्याभावे सति प्रयोनने निमित्त चोपचारः प्रवर्तते " जहां पर मूल पदार्थ न हो परन्तु किसी प्रकारका प्रयोजन उससे सिद्ध होता हो अथवा वह किसी कार्यमें निमित्त पड़ता हो तो ऐसे स्थल पर उपचारसे उसकी सत्ता स्वीकार की जाती है। जैसे किसी बालकमें तैजस्त्व गुण देख कर उसे अग्नि कह देते हैं वास्तवमें वह अग्नि नहीं है क्योंकि उसमें ऊष्णता आदि गुण नहीं है तथापि तैजस्त्व गुणके प्रयोजनसे उसे अग्नि कहते हैं इस लिये वह अग्निका उपचार बालकमें सर्वथा व्यर्थ नहीं है किन्तु किसी प्रयोजन बश किया गया है। इसी प्रकार कहीं पर निमित्त श उपचार होता है। ज्ञानमें जो मूर्तताका उपचार किया गया है वह कर्मके निमित्तसे है। दूसरे-कर्मका आत्माके साथ अनादि कालसे अति घनिष्ट सम्बन्ध होनेसे आत्माका विपाक ही वैसा होने लगा है, इसलिये कहना पड़ता है कि आत्मा मूर्त है। मूर्ततामें एक हेतु यह भी है कि आत्माने अपना निश स्वभाव छोड़ दिया है।