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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका।
हैं इसी लिये उन दोनोंका मिलकर द्वयणुक कहलाता है । परन्तु मूर्तिवाले कर्मसे अमूर्वआत्माका बन्ध कभी नहीं हो सक्ता ?
उत्तर
नैवं यतः स्वतः सिद्धः स्वभावोतर्कगोचरः।
तस्मादर्हति नाक्षेपं चेत्परीक्षां च सोर्हति ॥ ५३ ॥
अर्थ--कर्मका जीवात्माके साथ बन्ध नहीं हो सक्ता है ऐसी शङ्का करना ठीक नहीं है। क्योंकि जीव-कर्मका बंध अनादिसे स्वयं सिद्ध है यह एक स्वाभाविक बात है, और स्वभाव किसीका कैसा ही क्यों न हो, उसमें किसी प्रकारकी शंका नहीं हो सकती। जीव कर्मका बन्ध अनादिकालसे हो रहा है यह अशुद्ध जीवात्माका स्वभाव ही है और कर्मका भी यह स्वभाव है कि वह अशुद्ध जीवात्मासे संयुक्त हो जाता है तथा जीवकी अशुद्धता अनादि कालसे है, इसलिये इस स्वाभाविक विषयमें आक्षेप करना व्यर्थ है । यदि कोई इस बातकी ( जीव-कर्मका बंध कैसे हुआ ) परीक्षा ही करना चाहे तो उस अनादिकालीन बंधरूप स्वभावकी परीक्षा भी हो सकती है।
. स्वभावका उदाहरण---- अग्नेरीष्ण्यं यथा लक्ष्म न केनाप्यर्जितं हि तत्। एवं विधः स्वभावाद्वा न चेत्स्पर्शेन स्पृश्यताम् ॥ ५४॥
अर्थ--जिस प्रकार अग्निका उष्ण लक्षण है । वह किसीने कहींसे लाकर नहीं रक्खा है। इस प्रकारका अग्निका स्वभाव ही है कि वह गर्म रहती है। यदि कोई यह शंका करे कि अग्नि क्यों गर्म है ? तो इसका उत्तर यही हो सकता है कि अग्निका स्वभाव ही ऐसा है । "ऐसा स्वभाव क्यों है" यदि ऐसी तर्कणा उठाई जाय तो यही कहना पडेगा कि नहीं मानते हो तो छूकर देखलो, स्पर्श करनेसे हाथ जलने लगता है इस लिये अग्नि गर्म है। यह निर्णीत अग्निका स्वभाव ही है।
. हार्टान्ततथानादिः स्वतो बन्धो जीवपुद्गलकर्मणोः । कुतः केन कृतः कुत्र प्रश्नोयं व्योमपुष्पवत् ॥५५॥
अर्थ-जिस प्रकार अग्निमें स्वयं सिद्ध उष्णता है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल कर्मका भी अनादिसे स्वयं सिद्ध बन्ध हो रहा है। जिस प्रकार अग्निके उष्णपनेमें किसी प्रकारकी शंका नहीं हो सक्ती है उसी प्रकार जीव और कर्मके बन्धमें भी किसी प्रकारकी शंका नहीं हो सकी है। फिर यह बन्ध कहांसे हुआ ? किसने किया ? कहां किसा ? आदि