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पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा
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भावार्थ — उपरके श्लोक द्वारा जीव - कर्मका मिला हुआ उभय बन्ध बतलाया है, उसके विषय में यदि कोई शंका करे कि उभय बन्ध किस तरह हो सक्ता है ? इस शंका के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि जीव और कर्म दोनों ही अनेक अनुभव पूर्ण युक्तियोंसे सिद्ध हैं। दोनोंकी सत्ता स्वयं सिद्ध है । दोनों ही प्रत्यक्ष प्रमाणसे प्रसिद्ध हैं दोनोंकी सिद्धिमें प्रत्यक्ष प्रमाण
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अहम्प्रत्ययवेद्यत्त्वाज्जीवस्यास्तित्वमन्वयात् ।
एको दरिद्र एको हि श्रीमानिति च कर्मणः ॥ ५० ॥
अर्थ - इस शरीर के भीतर " मैं हूं, मैं हूं " ऐसा जो एक प्रकारका ज्ञान होता रहता है उस ज्ञानसे जाना जाता है कि इस शरीर के भीतर जीवरूप एक वस्तु स्वतन्त्र है । अथवा मैं-मैं इस बोसे ही जीवात्माका मानसिक प्रत्यक्ष स्वयं होता है । इसी प्रकार कोई दरिद्र है, कोई धनाढ्य है कोई अन्धा है कोई गूंगा है आदि अनेक प्रकारके जीवोंके देखनेसे कर्मका बोध होता है ।
भावार्थ-यदि आत्मा शरीर से भिन्न स्वतः सिद्ध- स्वतन्त्र पदार्थ न होता तो शरीरसे भिन्न “ मैं-मैं " ऐसी अन्तर्मुखाकार ( अभ्यन्तर बचन ) प्रतीति कभी न होती । यदि कर्म न होता तो जीवोंमें " कोई सुखी कोई दुःखी " आदि भेद कभी न पाया जाता । जीव कर्मका सम्बन्ध—
यथास्तित्वं स्वतः सिद्धं संयोगोपि तथानयोः । कर्तृभोक्त्रादिभावानामन्यथानुपपतितः ॥ ५१ ॥
अर्थ — जिस प्रकार जीव और कर्मका अस्तित्व ( सत्ता ) स्वतः सिद्ध है उसी प्रकार इन दोनोंका संयोग भी स्वतः सिद्ध हैं । यदि जीव कर्मका सम्बन्ध नहीं माना जाय तो जीव कर्तापना तथा भोक्तापना नहीं आ सक्ता ।
भावार्थ — जीव और कर्मका कार्य हम प्रत्यक्ष देखते हैं इसलिये जीव कर्मके 'सम्बन्धमें हमको कोई शंका नहीं रहती, यदि जीव कर्मका अनादिकालीन घनिष्ट सम्बन्ध न होता तो जीव कर्म करनेवाला और कर्तव्यानुसार फल भोगने वाला कभी सिद्ध न होता ।
शङ्काकार------
ननु मूर्तिमता मूर्ती बध्यते द्व्यणुकादिवत्
मूर्तिमत्कर्मणा बन्धो नामूर्तस्य स्फुटं चितः ॥ ५२ ॥
अर्थ - शङ्काकार कहता है कि मूर्तिमान् पदार्थसे मूर्तिवाला पदार्थ ही बँव सक्ता । जैसे कि द्वणुक, द्वणुक दो परमाणुओंके समूहको कहते हैं । दोंनों ही परमाणु मूर्त