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पञ्चाध्यायी
[ दूसरा
चुम्बक पत्थरके सिवा पीतल चांदी आदिसे लकड़ी पत्थर भी खिंचने चाहिये । इसलिये मानना पड़ता है कि दोनोंमें क्रमसे खींचने और खिंचनेकी शक्ति है । उसी प्रकार जीवमें कर्म बांधनेकी शक्ति है और कर्ममें जीवके साथ बंधनेकी शक्ति है । जब जीव और कर्म दोनों से बांधने और बंधनेकी शक्ति है तब दोनोंका आत्मक्षेत्रमें बंध हो जाता है । आत्मामें ही बांधनेकी शक्ति है इसलिये आत्मामें ही कर्म आकर बंध जाते हैं । जीव और गुल ही अपनी शुद्ध अवस्थाको छोड़कर वन्ध रूप अशुद्ध अवस्थामें क्यों आते हैं ? धर्म अधर्म आदिक द्रव्य क्यों नहीं अशुद्ध होते । इसका यही कारण है कि वैभाविक नामा गुण इन दो (जीव, पुद्गल) द्रव्यों में ही पाया जाता है इसलिये इन दोमें ही विकार होता है, शेष द्रव्योंमें नहीं होता ।
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बन्ध तीन प्रकारका होता है
अर्थतस्त्रिविधो बन्धो भावद्रव्योभयात्मकः ॥
प्रत्येकं तद्द्वयं यावत्तृतीयो द्वन्द्वजः क्रमात् ॥ ४६ ॥
अर्थ - वास्तव में बन्ध तीन प्रकारका है । भावबंध द्रव्यबंध और उभयबंध । उनमें अलग स्वतन्त्र हैं, परन्तु तीसरा जो उभयत्रन्ध है होता है ।
भावबन्ध और द्रव्य बन्ध तो अलग वह जीव आदि पुल दोनोंके मेलसे भावार्थ- न्धका लक्षण है
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कि “ अनेकपदार्थानामेकत्वबुद्धिजनकसम्बन्धविशेषो बन्धः " अर्थात् अनेक पदार्थोंमें एकत्व बुद्धिको उत्पन्न करनेवाले सम्बन्धका नाम बन्ध है यहांपर बंध तीन प्रकारका बतलाया गया है उसमें उभय बन्ध तो जीवात्मा और पुद्गल-कर्म, - इन दोनोंके सम्बन्ध होनेसे होता है। बाकीका जो दो प्रकारका बन्ध है वह द्वन्द्वज नहीं है किन्तु अलग अलग स्वतंत्र है। भावबन्ध तो आत्माका ही वैभाविक ( अशुद्ध ) भाव है और द्रव्य बन्ध पुगलका वह स्कन्ध है जिसमें कि बन्ध होनेकी शक्ति है। इन दोनों प्रकार के अलग अलग बन्धोंमें भी एकत्व बुद्धिको पैदा करनेवाला बन्धका लक्षण जाता ही है । क्योंकि रागात्मा जो भावबंध है वह भी वास्तव में जीव और पुद्गलका ही विकार है यह राग पर्याय जीव और पुद्गल दोनोंके योगसे हुई है । आत्मांशकी अपेक्षासे राग पर्याय जीवकी बतलाई जाती है और पुलांशी अपेक्षासे वही पर्याय पुगलकी बतलाई जाती है । रागपर्याय दोनोंकी है इसका अर्थ यह नहीं है कि जीव पुद्गलात्मक हो जाता है अथवा पुद्गल जीवात्मक हो जाता है किन्तु दोनों अशोंके मेल से रागपर्याय होती है । जो द्रव्य बन्ध है वह भी अनेक परमाणुओंका समुदाय है तथा उभय बन्धमें तो बन्धका लक्षण स्पष्ट ही है ।
ऊपर कहे तीनों प्रकारके बन्धों का स्वरूप ग्रन्थकार स्वयं आगेके श्लोकोंसे प्रगट करते हैं—