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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका। भावार्थ-"संसरण संसारः" परिभ्रमणका नाम संसार है। चारों गतियोंमें जीव उत्पन्न होता रहता है इसीको संसार कहते हैं । इस परिभ्रमणका कारण कर्म है। जैसा कर्मका उदय होता है उसीके अनुसार गति, आयु, शरीर आदि अवस्थायें मिल जाती हैं । उस कर्मका भी कारण आत्माके रागद्वेष भाव हैं । इसलिये संसारके कारणोंको ही आचार्यने संसार कहा है । यह संसार तभी छूट सक्ता है जब कि संसारके कारणोंको हटाया जाय । संसारके कारण मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांच हैं। इन पाचोंके प्रतिपक्षी भाव भी पांच हैं। मिथ्यादर्शनका प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन है । इसी प्रकार अविरतिका विरतिभाव, प्रमादका अप्रमत्तभाव, कषायका अकषायभाव, और योगका अयोगभाव प्रतिपक्षी है। जब ये सम्यग्दर्शनादिक भाव आत्मामें प्रगट हो जाते हैं तो फिर इस जीवका संसार भी छूट जाता है ।
न केवलं प्रदेशानां बन्धः सम्बन्धमात्रतः।।
सोपि भावैरशुद्धैः स्यात्सापेक्षस्तद्वयोरिति ॥४४॥
अर्थ-आत्मा और कर्मका जो बन्ध होता है, वह केवल दोनोंके सम्बन्ध मात्रसे ही नहीं हो जाता है, किन्तु आत्माके अशुद्ध भावोंसे होता है और वह परस्पर दोनोंकी अपेक्षा भी रखता है।
भावार्थ-बन्ध दो प्रकारका होता है । एक तो दो वस्तुओंके मेल हो जाने मात्रसे ही होता है। जैसे कि सूखी ईंटोंको परस्पर मिलानेसे होता है। सूखी ईंटोंका सम्बन्ध अवश्य है, परन्तु घनिष्ट सम्बन्ध नहीं है । दूसरा ईंटोंका ही वह सम्बन्ध जो कि चूनेके लगानेसे वे सब ईंटें एकरूपमें हो जाती हैं । यद्यपि यह मोटा दृष्टान्त है तथापि एक देशमें घनिष्ट सम्बन्धमें घटता ही है । दूसरा दृष्टान्त जल और दूधका भी है। इसी प्रकार जीव
और कर्मका सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध जीव और कर्मके प्रदेशोंके एक रूप हो जाने पर ही होता है । इस सम्बन्धमें कारण आत्माके अशुद्ध भाव ही हैं। कर्म सम्बन्ध और अशुद्ध भाव-इन दोनोंमें परस्पर अपेक्षा है, अर्थात् एक दूसरेमें परस्पर कार्य कारण भाव है ।
बन्धका मूल कारणअयस्कान्तोपलाकृष्ट सूचीवत्तद्वयोः पृथक् ।
अस्ति शक्तिर्विभावाख्या मिथो बन्धाधिकारिणी ॥ ४५ ॥
अर्थ-जिस प्रकार चुम्बक प्रत्थरमें सुईको खींचनेकी शक्ति है उसी प्रकार जीव और पुद्गल दोंनोंमें वैभाविकी नामा एक शक्ति है जो कि दोनोंमें परस्पर बन्धका कारण है।
भावार्थ-जिस प्रकार चुम्बक पत्थर में खींचनेकी शक्ति है उसी प्रकार लोहेमें खींचे जानेकी शक्ति है। यदि दोनोंमें खींचने और खींचे जानेकी शक्ति न मानी जाय तो