________________
२४ ] पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा प्रश्न आकाशके पुष्पकी तरह सर्वथा निष्फल है । जिस प्रकार आकाशके पुष्प नहीं ठहरते उसी प्रकार यह प्रश्न भी नहीं ठहरता।
चेद् विभुत्सास्तिचित्ते ते स्यात्तथा वान्यथेति वा । . स्वानुभूतिसनाथेन प्रत्यक्षेण विमृश्यताम् ॥५६॥
अर्थ-कर्मोका जीवके साथ बन्ध है अथवा नहीं है ? है तो किस प्रकार है ? इत्यादि जाननेकी यदि तुम्हारे हृदयमें आकांक्षा है तो स्वानुभूति प्रत्यक्षसे विचार लो।।
भावार्थ-जिस समय आत्मामें स्वानुभव होने लगेगा, उस समय इन बातोंका स्वयं परिज्ञान हो जायगा। अमूर्त आत्माका मूर्त पुद्गलके साथ किस प्रकार सम्बन्धं होता है इसीका खुलासा किया जाता है- अस्त्यमूर्त मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च वस्तुतः।
मद्यादिना समूर्तेन स्यात्तत्पाकानुसारि तत् ॥ ५७॥
अर्थ-वास्तवमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-दोनों ही ज्ञान अमूर्त हैं, परन्तु मूर्त मद्य आदि पदार्थक योगसे उन ज्ञानोंका परिणमन बदल जाता है।
भावार्थ-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ही आत्माके ज्ञान गुणकी पर्यायरूप हैं। आत्मा अमूर्त है इसलिये ये दोनों भी अमूर्त ही हैं, परन्तु जब कोई आदमी मदिरा भंग आदि मादक पदार्थोका पान कर लेता है तो उस आदमीका ज्ञान गुण नष्ट हो जाता है. मदिरापान करनेवाला मनुष्य वेहोश हो जाता है। यह बेहोशी उसी मूर्त मदिराके निमित्तसे होती है। इस कथनसे आत्माका मूर्त कर्मसे किस तरह बंध हो जाता है ? इस प्रश्नका अच्छी तरह निराकरण हो जाता है।
__उसीका स्पष्टार्थनासिद्ध तत्तथायोगात् यथा दृष्टोपलब्धितः । . विना मद्यादिना यस्मात् तद्विशिष्टं न तद्वयम् ॥ ५८॥ ___ अर्थ-मदिराके निमित्तसे ज्ञान मंद हो जाता है यह बात असिद्ध नहीं है किन्तु प्रत्यक्ष सिद्ध है। क्योंकि मदिरा आदिके विना मतिज्ञान, श्रुतज्ञान मूर्छित नहीं होते।
___ भावार्थ-विना मदिराके ज्ञान निर्मल रहता है और मद्य पीनेसे मूर्छित हो जाता है इसलिये अमूर्त ज्ञानपर मूर्त मदिराका पूरा असर पड़ता है।
वास्तवमें ज्ञान अमूर्त हैअपि चोपचारतो मूर्त तूक्तं ज्ञानदयं हि यत् ।
. न तत्तत्त्वाद्यथा ज्ञानं वस्तुसीनोऽनतिक्रमात् ॥ ५९॥ . अर्थ-मतिज्ञान और श्रतज्ञान कथंचित् मूर्त भी हैं, परन्तु उक्त दोनों ज्ञानोंमें मूर्त