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पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा
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'aणाओं अथवा विसोपचयोंको यह आत्मा *खींचकर अपना सम्बन्धी बना लेता है । जिस प्रकार कि अग्निसे तपा हुआ लोहेका गोला अपने आसपास भरे हुए जलको खींचकर अपनेमें प्रविष्ट कर लेता है । जिन पुद्गल वर्गणाओंको यह अशुद्ध जीवात्मा खींचता है वे ही वर्गणायें आत्माके साथ एक क्षेत्रावगाह रूप ( एकमएक ) से बँध जाती हैं । बंध समय से उन्हीं वर्गणाओंकी कर्मरूप पर्याय हो जाती है । फिर कालान्तर में उन्हीं बांधे हुए कर्मोंके निमित्त से चारित्र के विभाव भाव रागद्वेष बनते हैं फिर उन रागद्वेष भावोंसे नवीन कर्म बँधते हैं । उन कर्मोंके निमित्तसे फिर भी रागद्वेष उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार पहले कर्मोंसे रागद्वेष और रागद्वेषसे नवीन कर्म होते रहते हैं । यही परस्परमें कार्यकारण भाव अनादिसे चला आता है ।
इसी बात को नीचे के श्लोकोंस पुष्ट करते हैं
पूर्वकर्मोदयाद्भावो भावात्प्रत्यग्रसंचयः । तस्य पाकात्पुनर्भावो भावाद्बन्धः पुनस्ततः ॥ ४२ ॥ एवं सन्तानतोऽनादिः सम्बन्धो जीवकर्मणोः ।
संसारः स च दुर्मोच्यो विना सम्यग्धगादिना ॥ ४३ ॥
अर्थ — पहले कर्मके उदयसे रागद्वेष-भाव पैदा होते हैं, उन्हीं रागद्वेष भावोंसे नवीन कर्मों का संचय होता है, उन आये हुए कर्मोंके पाक ( उदय ) से फिर रागद्वेष भाव बनते हैं, उन भावोंसे फिर नवीन कर्मेका बन्ध होता है, इसी प्रकार प्रवाहकी अपेक्षासे जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादिसे चला आया है । इसी सम्बन्धका नाम संसार है, अर्थात जीवी रागद्वेष रूप अशुद्ध अवस्थाका ही नाम संसार है । यह संसार विना सम्यग्दर्शन आदि भावोंके नहीं छूट सक्ता है | x
* कर्मके खींचनेमें योग कारण है और आये हुए कमोंके स्थिति अनुभाग बन्धमें काय कारण है ।
x इसका अभिप्राय यह है कि जबतक सम्यग्दर्शन नहीं होता तबतक मिथ्यात्व कर्म आत्मा के स्वाभाविक भावोंको ढके रहता है अथवा यों कहना चाहिये कि वह मिथ्यात्व उन भावोंको विपरीत रूपसे परिणमा देता है । उन भावोंके विपरीत होनेसे फिर नये कर्म आतें हैं और उन कर्मों के उदयसे फिर रागद्वेष रूप विपरीत भाव होते हैं परंतु जब वह मिथ्यात्व नष्ट होकर सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है तब वे भाव विपरीत नहीं होते किंतु अपने स्वभावमें ही बने 'रहते हैं इसलिये फिर उनसे नये कमोंका आना भी बंद हो जाता है और संचय किये हुए कर्म भी धीरे धीरे नष्ट हो जाते हैं इस तरह सम्यग्दर्शन आदि भावोंसे ही संसार छूटता है ।