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पञ्चाध्यायी।
अर्थ-द्रव्योंके लक्षणकी अपेक्षासे ही लोक और अलोकका विभाग होता है। जहां पर छह द्रव्य पाये जाय अथवा जो छह द्रव्य स्वरूप हो उसे लोक कहते हैं । और जहां छह द्रव्य नहीं पाये जाय उसे अलोक कहते हैं।
भावार्थ-लोक शब्दका यही अर्थ है कि " लोक्यन्ते षट्पदार्था यत्र असौ लोकः " अर्थात् नहांपर छह पदार्थ पाये जाय या देखे जायँ उसे लोक कहते हैं। जहांपर छह पदार्थ नहीं किन्तु केवल आकाश ही पाया जाय उसे अलोक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि सभी द्रव्योंका आश्रय आकाश द्रव्य है । जिस आकाशमें अन्य पांच द्रव्य हैं उसे लोकाकाश कहते हैं और जहां केवल आकाश ही है, उसे अलोकाकाश कहते हैं। एक आकाशके ही उपाधिभेदसे (निमित्त भेदसे ) दो भेद हो गये हैं।
____ अलोकका स्वरूपसोप्यलोको में शून्योस्ति षड्भिर्द्रव्यैरशेषतः। व्योममात्रावशेषत्वाव्योमात्मा केवलं भवेत् ।। २३ ॥
अर्थ-जो अलोक है वह भी छह द्रव्योंसे सर्वथा शून्य नहीं है । अलोकमें भी छह द्रव्यों में से एक आकाश द्रव्य रहता है इसलिये अलोक केवल आकाशस्वरूप ही है। भावार्थ-अलोक भी द्रव्य शून्य नहीं है किन्तु आकाश द्रव्यात्मक है।
पदार्थोंमें विशेषताक्रिया भावविशेषोस्ति तेषामन्वर्थतो यतः ।
भावक्रियाद्वयोपेताः केचिद्भावगताः परे ॥ २४ ॥
अर्थ-उन छहों द्रव्योंमें दो भेद हैं । कोई द्रय तो भावात्मक ही हैं और कोई भावात्मक भी हैं तथा क्रियात्मक भी हैं ।
भावार्थ-जो पदार्थ सदा एकसे रहते हैं जिनमें हलन चलन क्रिया नहीं होती पदार्थ तो भावरूप हैं, और जो पदार्थ कभी स्थिर भी रहते हैं और कभी क्रिया भी करते हैं वे भावस्वरूप भी हैं और क्रिया स्वरूप भी हैं । तात्पर्य यह है कि जिन पदस्यों में क्रियावती शक्ति है उनमें क्रिया होती है, जिन पदार्थोंमें क्रियावती शक्ति नहीं है उनमें हलन चलन रूप क्रिया नहीं होती है । वे केवल भाववली शक्तियाले कहलाते हैं।
कोई महाशय जिन पदार्थो में क्रियावती शक्ति नहीं है केवल भाववती शक्ति है उन्हें अपरिणामी न समझ लेवें । परिणमन तो सदा सभी पदार्थोमें होता है परन्तु परिणमन दो तरहका होता है, जिसमें वस्तुके प्रदेशों का एक देशसे दूसरा देश हो अर्थात् स्थानसे स्थानान्तर हो उसे तो क्रियारूप परिगमन कहते हैं और जिसमें प्रदेशोंका तो हलन चला न हो परन्तु पहली अवस्थोसे दूसरी आस्था हो जाय उसे भाव परिणाम कहते हैं, पृष्टान्तके लिये