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पञ्चाध्यायी ।
सुखादिक अजीवमें नहीं हैं
न पुनः स्वैरसञ्चारि सुखं दुःखं चिदात्मनि । अचिदात्मन्यपि व्यानं वर्णादौ तदसम्भवात् ॥ १५ ॥ अर्थ — ऐसा नहीं है कि सुख दुःख भाव जीव और अजीव दोनोंमें ही स्वतन्त्रतासे व्याप्त रहे । किन्तु ये भाव जीवके ही हैं। वर्णादिकमें इन भावोंका होना असंभव है ।
]
[ दूसरा
भावार्थ-द्रों में दो प्रकार के गुण होते हैं सामान्य और विशेष । सामान्य गुण समान रीति से सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं परन्तु विशेष गुणोंमें यह बात नहीं है। वे जिस द्रव्यके होते हैं उसीमें असाधारण रीतिसे रहते हैं दूसरेमें कदापि नहीं पाये जाते । सुख दुःखादिक जीवद्रव्यके ही असाधारण वैभाविक तथा स्वाभाविक भाव हैं । इसलिये वे जीव द्रव्यको छोड़ कर अन्य पुद्गल आदिक में नहीं पाये जा सकते ।
सारांश
ततः सिद्धं चिदात्मादि स्यादमूर्त तदर्थवत् । प्रसाधितसुखादीनामन्यथाऽनुपपत्तितः ॥ १६ ॥
अर्थ — इसलिये यह बात सिद्ध हो चुकी कि आत्मा आदि अमूर्त पदार्थ भी वास्तविक हैं इनको न मानने से स्वानुभव सिद्ध सुखदुःख आदिकी प्राप्ति नहीं हो सकती ।
शङ्काकार
नन्वसिद्धं सुखादीनां मूर्तिमत्वादमूर्तिमत् । तद्यथा यद्रसज्ञानं तद्रसो रसवद्यतः ॥ १७ ॥ तन्मूर्तत्वे कुतस्त्यं स्यादमूर्त कारणाद्विना यत्साधनाविनाभूतं साध्यं न्यायानतिक्रमात् ॥ १८ ॥
अर्थ —ख दुःख आदि मूर्त हैं इसलिये उनको अमूर्त मानना असिद्ध है । जैसे रसका ज्ञान होता है वह रस स्वरूप ही है क्योंकि वह ज्ञान रसवाला है इसी तरह सुखादिक में मूर्तता सिद्ध हो जाने पर विना कारण उनमें अमूर्तता किस तरह आ सकती है ? अविनाभावी साधनसे ही साध्यकी सिद्धि होती है ऐसा न्यायका सिद्धांत है ।
भावार्थ - शङ्काकारका अभिप्राय है कि जिस पदार्थका ज्ञान होता है वह ज्ञान उसी रूप हो जाता है । जिस समय ज्ञान रूप, रस, गन्ध स्पर्शको जान रहा है उस समय ज्ञान रूप रसगन्धस्पर्शात्मक ही है ।
उत्तर
मैवं यतो रसाद्यर्थ ज्ञानं तन्न रसः स्वयम् । अर्थाज्ज्ञानममूर्त स्यान्मूर्त मूर्तीपचारत: ॥ १९ ॥