________________ नैषधमहाकाव्यम् / स्वबालेति / चमरी मृगीविशेषः तस्य नलस्य उत्तमाङ्गजः शिरोग्हैः समं सहैव तुळाभिलाषिणःसारश्यकारिणः स्वबालभारस्य निजलोनिचयस्य नागसे अन. पराधाय नीचस्य उत्तमैः सह सायाभिगमोऽपि महान् अपराध इति भावः / क्वचिः सदभावे नम्समासो श्यते। पुनः पुनः पुच्छस्य लागूलस्य विलोलनं विचालनम् एव छलं तस्मात् बालचापलं रोमचावल्यम् अथ च शिशुचापल्यं शंसति कथयति बालचापल्यं सोढव्यमिति धियेति भावः / 'अन पुच्छविलोलनप्रतिषेधेन अन्यस्य बालचापलस्य स्थापनादपद्धतिरलकारः। तदुकं दर्पणे-'प्रकृतं प्रतिषि यान्यस्थापनं स्यादपह्नतिरिति // 25 // उस ( नक) के मस्तकके केशोंके साथ समताको चाहने वाले अपने बाक ( केश) समूहके अपराधामाबके लिए चमरी गाय ही बार-बार पूंछ को हिलाने के कपटसे बालकी चपलताको कहती है। [चमरी गायके वारू अर्थात् केश नरूके शिरके बालों के साथ समा. नता चाहते थे, किन्तु तुच्छ होकर श्रेष्ठ नक-शिरःस्थ बार साथ समता करना उनका बड़ा अपराध है, इसलिये चमरी गाय बार-बार पूछको हिलाकर नसे मानो यह कह रही है कि उन्होंने बाल (बच्चे ) की चपलता की है, अत एव बच्चेके चपलता करने पर उसका अपराध नहीं मानना चाहिये / लोकमें भी बच्चेके अपराध करने पर उसका अपराध नहीं मानना चाहिये / लोकमें मी बच्चेके अपराध करने पर उसकी माता बच्चेकी चपलता कहकर उसके अपराधको क्षमा करने के लिए प्रार्थना करती है। नम्के मस्तकके केश चमरी गायके केश-समूहसे मी सुन्दर एवं मृदु थे ] // 25 // महीभृतस्तस्य च मन्मश्रिया निजस्य चित्तस्य च तं प्रतीच्छया। द्विधा नृपे तत्र जगत्त्रयीभुवां नतभ्रवां मन्मविभ्रमोऽभवत् || 26 // महीभृत इति / तस्य महीभृतो नलस्य मन्मयस्येव श्रीः कान्निः तया च निज. स्य चित्तस्य तं नलं प्रति इच्छया रागेण च तत्र नृपे नले जगस्नपीभुवां त्रिभुवन वत्तिनीनां नत4वां कामिनीनां विधा द्विप्रकारेण मन्मथविभ्रमः अयं मन्मय इति विशिश भ्रान्तिः कामावेशश्च अमवत् / अत्र श्लेषसङ्कीर्णो यथासंख्यालङ्कारः // 26 // ___ उस राजा ( नल ) की कामदेव-कान्तिसे तथा उम ( नक) के प्रति अमिलाप होनेसे लोकत्रयोरपन्न सुन्दारेयोकी उस ( नह) के विषय में दो प्रकारका विभ्रम (विशिष्ट भ्रान्ति, पक्षा० - विलास ) हुमा। [सुन्दरियोंको कामदेवकी शोभा होनेसे नसमें 'यह कामदेव है। ऐसा विशिष्ट भ्रम हुआ तथा उनके प्रति कामामिलाष होनेसे कटाक्षादिरूप विलास हुभा / लोकत्रयोत्पन्न सु-दारियोंको विभ्रम होना सामान्य रूपसे कहने के कारण पतिव्रता लियोको नलके प्रति कामामिलाष नहीं होने पर भी कोई दोष नहीं होता, अथवा-'लोकप्रयोत्पन्न मन्दारयोंको कामदेवकान्तिसे ही उस राजा नलमें कामदेव का विशिष्ट भ्रम 1. 'मत्र पुच्छविलालनच्छलशम्दनापह्नता वालवालयोरभेदाध्यवसायेन बालचा पछत्वारोपादपह्नवभेदः' इति जीवातुः, इति म० म० शिवदत्तशर्माणः /