Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०८]
अणुभागभुजगार संकमे णाणाजीवेहिं भंगविचयाणुगमादिपरूवणा
विहतिभंगो | णवरि अवत० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्त्रकोडी देखणा । सेसमग्गणाओ
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विहतिमंगो |
४५.
noo मोह • भुज ०-अप्प ० - अवट्ठि ० संकामया णियमा अत्थि । सिया एदे च अवतव्त्रया च । मणुसतिए भुज० -अवडि० भयणिआाणि । सेसमम्गणाणं विहत्तिभंगो ।
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१७
णाणाजीवभंगविचयागमेण दुविहो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । ओषेण
सिया एदे च अवत्तव्यओ च । णियमा अस्थि । सेसपदाणि
४६. भागाभागाणु ० दुविहो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । ओघो विहत्तिभंगो । णवरि अवत्त • संका • अगतिमभागो । मणुसेसु विहत्तिभंगो । णवरि अवत्तव्य० असंखे ०भागो । मणुसपज ० - मणुसिणी • मोह० अवडि० संखेजा भागा। सेससंका • संखे० भागो । सेसमम्गणासु विहत्तिभंगो ।
६ ४७. परिमाणं विहत्तिभंगो । णवरि अवत • संखेजा ।
इतनी विशेषता है कि वक्तव्यसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण है। शेष मार्गणाओंका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है।
विशेषार्थ - तामिकसम्यग्दृष्टि जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे और अधिक से अधिक साधिक तैंतीस सागरके अन्तरसे उपशमन पिर आरोहण करता है, इसलिए तो ओघसे अवक्तव्यसंक्रमका जधम्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । तथा मनुष्यत्रिमें जघन्थ अन्तर तो श्रोघके समान ही प्राप्त होता है। मात्र उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिसे अधिक नहीं हो सकता। कारण स्पष्ट ही है। शेष कथन सुगम है।
४५. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । भोसे मोहनीयके भुजगारसंक्रामक, श्रल्पतरसंक्रामक और अवस्थितसंक्रामक नाना जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवक्तव्यसंक्रामक जीव है । कदाचित् ये: नाना जीव हैं और नाना अवक्तव्यसंक्रामक जीव हैं। मनुष्यत्रिकों भुजगारसंक्रामक और अवस्थित संक्रामक नाना जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। शेष मार्गणाओंका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है।
६ ४६. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- श्रोष और आवेश । श्रोषसे अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यसंक्रामक जीव सब जीवीके श्रमम्तवें भागप्रमाणं हैं। मनुष्यों में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यसंक्रामक जीव सब मनुष्यों के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनिर्मि अपस्थितसंक्रामक जीव उक्त दोनों प्रकारके मनुष्योंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा शेष पदोंके संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। शेष मार्गणाओं में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । ४७. परिमाणका भङ्ग अनुभागविभवितके समान है । इतनी विशेषता है वक्तव्य संक्रामक जीव संख्यात हैं।