________________
ज्ञानार्णवः
हेमचन्द्र सूरिने प्रकृत योगशास्त्रकी रचनामें जिस प्रकार ज्ञानार्णवका अनुसरण किया है उसी प्रकार
में उन्होंने इतर ग्रन्थोंका भी अनुसरण किया है। जैसे-ध्यानशतक ( ८वीं शती), आदिपुराण ( ९वीं शती ), तत्त्वानुशासन ( १०वीं शती ), योगसारप्राभृत (१०-११वीं शती ) और अमितगतिश्रावकाचार (११वीं शती) आदि ।
१. ध्यानशतक-योगशास्त्रमें ध्यानका जो लक्षण किया गया है वह ध्यानशतकके अनुसार किया गया है। इसी प्रकार आसन व शुक्लध्यानके निरूपणमें भी ध्यानशतकका आश्रय लिया गया है। ( इसके लिए ध्यानशतककी प्रस्तावनामें पृ. ६९-७२ पर 'ध्यानशतक व योगशास्त्र' शीर्षक देखिये )।
२. आदिपुराण-आदिपुराणके २१वें पर्व में जो ध्यानका वर्णन किया गया है उसका परिशीलन योगशास्त्रकारने किया है। उदाहरणस्वरूप योगशास्त्र में जो धर्मध्यानके प्रसंगमें क्षायोपशमिकादि भाव व क्रमविशुद्ध पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओंका निर्देश किया गया है ( १०-१६ ) उसका आधार आदिपुराण रहा है। वहाँ श्लोक २१-१५६ में धर्मध्यानको अतिशय विशुद्ध तीन लेश्याओंसे वृद्धिंगत बतलाया गया है । आगे श्लोक २१-१५७ में उसे क्षायोपशमिक भावको आत्मसात् कर वृद्धिंगत कहा गया है।
३. तत्वानुशासन-इसके श्लोक १३७ का "सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम्' यह पूर्वार्ध योगशास्त्रके १०वें प्रकाशमें ४ संख्याके अन्तर्गत आत्मसात् किया गया है ।
४, योगसार-प्राभृत-इसके नौवें अधिकारका ५२वा श्लोक योगशास्त्रके नौवें प्रकाशमें १४ संख्याके अन्तर्गत आत्मसात् किया गया है। यहां 'येन येनैव' के स्थानमें 'येन येन हि' तथा 'तन्मयस्तत्र तत्रापि'के स्थानमें 'तेन तन्मयतां याति' जो पाठभेद है वह ज्ञानार्णवके अन्तर्गत उस श्लोक ( 2076) के पाठसे सर्वथा मिलता है। यह श्लोक ज्ञानार्णवमें 'उक्तं च' के साथ उद्धृत किया गया है। सम्भव है योगशास्त्रकारने उसे सीधा योगसारप्राभूतसे न लेकर ज्ञानार्णवसे ही लिया हो। इसका कारण दोनोंमें सर्वथा पाठकी समानता है।
५. अमितगति-श्रावकाचार-ज्ञानार्णव और योगशास्त्रके समान इस अमितगति-श्रावकाचारमें भी पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और अरूप (रूपातीत ) ध्यानोंका वर्णन विस्तारसे किया गया है (१५, ३०-५६)। सम्भवतः इसका परिशीलन भी योगशास्त्रकारने किया है। इसके अतिरिक्त अमितगति-श्रावकाचारमें निम्न श्लोक द्वारा ध्यानके इच्छुकसे ध्याता, ध्येय, विधि और फलके जान लेनेकी प्रेरणा की गयी है
ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याता ध्येयं विधिः फलम्।
विधेयानि प्रसिद्धयन्ति सामग्रीतो विना न हि ।। १५-२३ यह श्लोक कुछ थोड़े-से परिवर्तनके साथ योगशास्त्र में इस प्रकारसे आत्मसात किया गया है
ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याता ध्येयं तथा फलम् । सिद्धयन्ति न हि सामग्री विना कार्याणि कहिचित् ॥७-१
योगशास्त्र
(१) प्राणायामस्ततः कैश्चिदाश्रितो ध्यानसिद्धये । (५-१) (२) xxx सप्तधा कीर्त्यते परैः ।। (५-५) (३) xxx इति कैश्चिन्निगद्यते ।। (५-२४७) (४) ज्ञानवद्भिः समाख्यातं वज्रस्वाम्यादिमिः स्फुटम् ।
विद्यावादात् समुद्धृत्त्य xxx॥ (८-७४)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org