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पांचवा व्रत का वर्णन और अतिचार
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- वहां स्थूल याने अपरिमित परिग्रह, उक्त स्थूल परिग्रह नव प्रकार का है:--क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद और कुप्य, इनका अपनी अवस्थानुसार विरमण सो पांचवा अणुव्रत है। ___ तो भी पांच अतिचार वर्जनीय है यथा--क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम, हिरण्य सुवर्ण प्रमाणातिक्रम, धन धान्य प्रमाणातिक्रम, द्विपद चतुष्पद प्रमाणातिक्रम, और कुप्यप्रमाणातिक्रम। ____अर्थः--क्षेत्रादिक का, हिरण्यादिक का, धनादिक का, द्विपदादिक का तथा कुप्य का मानातिक्रम योजन, प्रदान, बंधन, कारण और भाव द्वारा न करना चाहिये । ___ उसमें क्षेत्र याने धान्य उत्पन्न होने की भूमि वह सेतु-केतु और उभय भेद से तीन प्रकार को है, सेतु क्षेत्र वह है जिसमें कि अरघट्टादिक (रहेट) से पाक तैयार होता है, केतु क्षेत्र वह है जिसमें आकाश के पानी से पाक होता है और उभय क्षेत्र वह है जिसमें उक्त दोनों के योग से पाक होता है।
वास्तु याने गृह, ग्राम, नगर आदि वहां गृह तीन प्रकार का है-खात, उच्छृत और खातोच्छृत, उसमें खात सो भूमिगृह (तलगृह) आदि, उच्छत सो भूमि के ऊपर बांधा हुआ, और उभय सो तलगृह पर बांधा हुआ महल । ___ उक्त क्षेत्र और वास्तु के प्रमाण का योजन द्वारा याने. क्षेत्रांतर के साथ मिलान करके अतिक्रम करना अतिचार माना जाता है।
वह इस प्रकार कि-मुझे एक क्षेत्र वा वास्तु रखना चाहिये ऐसे अभिग्रह वाले को उससे अधिक की अभिलाषा होने से व्रत