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अमरदत्त का दृष्टांत
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अब एक दिन राजगृह की ओर जाते तुझे रास्ते में कोई पथिक मिला व क्रमशः तूने जाना कि-वह धनाढ्य है। जिससे उसको विश्वास कराकर, रात्रि में उसे मार कर उसका सर्व धन ले, तू धागे चला। इतने में तुझे भूखे सिंह ने मारा । जिससे तू प्रथम नरक में जा कर, अनेक दुःख सह कर, वहां से निकल कर यह सेन हुआ है।
हे सेन ! तू ने उस समय जिस पधिक को मारा था वह अज्ञान सप करके असुर निकाय में देवता हुआ। उसने पूर्व का वैर स्मरण करके तेरे माता पिता व स्वजन सम्बन्धियों को मारे, तथा धन का नाश किया, साथ ही तेरे शरीर में रोग पैदा किये। तथा तेरी फांसी भी उसी ने काटी। वह इसीलिये कि-तू चिरकाल दुःखी रहे तो ठीक । और बीच बीच में तुझे घोर पीड़ा देने वाला भी वही है।
यह सुन वह पथिक संसार से भयभीत हो, उक्त मुनि से अनशन लेकर नवकार स्मरण करता हुआ वैमानिक देव हुआ।
इस प्रकार पथिक का चरित्र सुन कर अमरदत्त भी अति संवेग पाकर उक्त मुनि को नमन करके, विनंती करने लगा किहे भगवन् ! मुझे जिन-धर्म कहिये।
मुनि बोले कि-त्रिलोक को हैरान करने को तत्पर राग रूप शत्रु के नाशक होने से सुर, नर, किन्नरों से पूजित अरिहंत ही एक देव हैं । मोक्ष मार्ग साधक ज्ञान और चारित्र को धारण करने वाले सुसाधु सो गुरु हैं और सकल जगत के जंतुओं को परिपालन करने में प्रधान हो सो धर्म है। इसको समय में दर्शन कहते हैं । वह एक, दो, तीन, चार, पांच वा दश प्रकार का कहलाता है।