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इसवाँ भेद आगम पुरस्सर क्रिया करना
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नत्थि पर लोयमग्गे पमाणमन्नं जिणागमं मुत्तु । आगमपुरस्सरं चिय करे तो सव्वकिरियाओ ॥ ६९ ॥
मूल का अर्थ - परलोक के मार्ग में जिनागम समान दूसरा प्रमाण नहीं । इसलिये आगम पुरस्सर ही सर्व क्रियाएं करें ।
टीका का अर्थ - पर याने प्रधान लोक अर्थात् मोक्ष उसके मार्ग में अर्थात् ज्ञान-दर्शन- चारित्र रूप मोक्ष मार्ग में जिन याने रागादिक के जीतने वाले, उनके कहे हुए सिद्धान्त को छोड़कर दूसरा कोई प्रमाण अर्थात् विश्वास कराने वाला सबूत नहीं, क्योंकि उसी को अन्यथापन की असंभावना है क्योंकि कहा है कि
रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषा - स्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ॥
राग से, द्वेष से वा मोह से असत्य वाक्य बोला जाता है । अब जिसको ये दोष न हों उसको असत्य बोलने का क्या कारण ? तथा उसका पूर्वापर अविरोध है । वह इस प्रकार है किजैसे धर्म का मूल जिनेश्वर ने कृपा करके बताया । उसी के अनुसार क्रिया भी प्राणियों को हितकारी ही बताई है । यथा-आदि में सामायिक बताया है । उसी का रक्षण करने वाले क्षांति आदि बताये हैं । अतः आगम की पर्यालोचनापूर्वक ही सर्व देववंदन, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण आदि क्रिया करे, वरुण महाश्रावक के
समान ।
देववंदन की विधि इस प्रकार है ।
दशत्रिक, पांच अभिगम, दो दिशा, तीन अवग्रह, तीन प्रकार की वंदना, प्रणिपात, नमस्कार, सोलह सौ सैंतालिस वर्ण ।