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ताराचन्द्र की कथा
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देहदिईनिबंधण- धणसयणाहारगेहमाईसु। निवसइ अरतदुट्ठो संसारगएसु मावेसु ।। ७२ ॥ मूल का अर्थ-शरीर की स्थिति के कारण धन, स्वजन, आहार, घर आदि सांसारिक पदार्थों में भी अरक्त द्विष्ट हो कर रहे।
टोका का अर्थ-देहस्थिति निबंधन अर्थात् शरीर को सहायक धन, स्वजन, आहार, घर और आदि शब्द से क्षेत्र, कलत्र, वस्त्र, शस्त्र, यान, वाहन आदि संसारगत भाव याने पदार्थों में गृहस्थ अरक्तद्विष्ट के समान होकर रहे। सारांश यह कि- शरीर का निर्वाह करने वाली वस्तुओं में भी ताराचन्द्र राजा के समान भावश्रावक मंद आदरवान होवे और इस भांति विचार करे कि
कोई स्वजन, शरीर व उपभोग साथ आने वाला नहीं । जीव सब कुछ छोड़कर परभव में जाता है। तथा दुर्विनीत परिजन आदि पर भी अन्तर से विद्वेष न रखना किन्तु ऊपर ही से क्रोध बताना।
ताराचन्द्र राजा की कथा इस प्रकार है। श्रावस्ती नामक नगरी थी । वह जिनमन्दिर पर स्थित ध्वजा फहराने के मित्र से नित्य मानों यह कहती थी, मेरे समान कोई नगरी ही नहीं है। वहां नमते हुए बड़े-बड़े पुरुषों के रत्नों की प्रभा से प्रभासित चरणकमलों वाला आदिवराह नामक सुप्रसिद्ध राजा था। उसका ताराचन्द्र नामक नंदन था । वह गुणरूप तरुओं का नंदनवन समान, उत्तम राजलक्षणधारी और रूप से कामदेव को भी जीतने वाला था।