Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 338
________________ पृथ्वीचन्द्र राजा की कथा वे बोलीं कि - हे स्वामिन्! हमको दीक्षा लेने के लिये शीघ्र आज्ञा दीजिए। हम आ की स्त्रियां कहलाई । इतने ही से हम यहां क्रुतार्थ हो गई हैं । अब गृहवास में तो एक क्षण भी रहते सुख नहीं मिलता । ३२९ तब कुमार प्रसन्न होकर बोला कि तुम्हारे समान विवेकवाली स्त्रियों को ऐसा ही करना योग्य है । तथापि अभी समाधि में रहकर गुरु के आने की राह देखो । समय पर मैं भी ऐसा ही करूगा । तब उन्होंने यह बात मान ली । अब परिजनों के मुख से यह बात हरिसिंह राजा ने जानी । तब उसने विचार किया कि यह कुनार तो स्त्री वश नहीं हुआ किन्तु उसने उनको चारित्र लेने को तैयार कर ली हैं। जिससे उसने विचार किया कि अब इसे प्रेमपूर्वक कह कर राज्य संचालन के कार्य में रोकू, ताकि उसमें व्याकुल होकर यह धर्म की बात को भी भूल जावेगा । यह निश्चय करके उसने कुमार को राज्य लेने के लिये बहुत कहा। वह भी दाक्षिण्यतावान् होने से पिता का वचन टाल नहीं सका . वह सोचने लगा कि समुद्र में जाने की इच्छा करने वाले को हिमवत् पर्वत के साम्हने जाना विरुद्ध लगता है, वैसे ही तप करने को तैयार होने वाले को राज्य संचालन का कार्य विरुद्ध ही है, किन्तु इस विषय में पिताजी का भारी आग्रह दीखता है । वैसे ही गुरु-जन दुष्प्रतिकार होने से चतुर मनुष्यों ने उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये, तथा (अभी मैं वश में न हो तो फिर भी ये ऐसा ही मांगनी करेंगे। साथ ही मुझे भी धर्माचार्य आर्वे तब तक निश्चयतः राह देखना है ।

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