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पृथ्वीचन्द्र राजा की कथा
बाद एक समय झरोखे में बैठे हुए गुणसागर ने राजमार्ग में भिक्षार्थ नगर में प्रवेश करते हुए एक मुनि को देखा । तब वह सोचने लगा कि ऐसा रूप तो मैंने पहिले भी कहीं देखा है। यह सोचकर वह पूर्व में पालन किये हुए चारित्र वाले भव को स्मरण करने लगा । पश्चात् वह अति आग्रह से व्रत लेने के लिये माता पिता को पूछने लगा । तब उसकी माता खिन्न हो रोती हुई इस इस प्रकार कहने लगी
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हे वत्स ! यद्यपि तेरा चित्त क्षणभर भी घर में नहीं लगता तथापि तू विवाह करके तेरा मुख बता कर हमारे हृदय को प्रसन्न कर | उसके बाद व्रत लेने में मैं कुछ भी रुकावट नहीं करूंगी । माता के इस प्रकार कहने पर उसने वह बात स्वीकार की ।
अब रत्नसंचय सेठ ने सम्बन्धियों को कहलाया कि-विवाह करने के अनन्तर मेरा पुत्र शीघ्र ही दीक्षा लेने वाला है । यह सुन वे चिन्तातुर हो सलाह करने लगे। इतने में उनकी पुत्रियां बोली कि - हे पिताओं ! कन्याएं क्या दो बार दी जाती हैं ? अतएव हमारे तो वे ही पति हैं और वे जो करेंगे सो हम भी करेंगी । अगर वे हमारा पाणिग्रहण नहीं करेंगे, तो हम दूसरा वर कदापि नहीं करेंगी ।
इस प्रकार पुत्रियों का वचन सुनकर उन सब सेठों ने प्रसन्न हो अपनी पुत्रियों को गुणसागर के साथ विवाह दी। विवाह महोत्सव प्रारम्भ होने पर अनेक धवल गीत गाये जाने लगे, और मनोहर नृत्य होने लगे । उसमें गुणसागर कुमार नाक पर दृष्टि रखकर, इन्द्रिय विकार रोक, एकाग्र मन करके सोचने लगा कि-श्रमण हो गया होता तो इस भांति श्रुत पढ़ता, इस भांति तप करता, इस भांति गुरु का विनय करता, इस भांति संयम में यत्न करता और इस भांति शुभ ध्यान धरता ।