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- निराशंसता पर
आदर से भोगती है। वैसे ही भाव-श्रावक भी आज वा कल इस गृहवास को छोड़ना है, ऐसा मनोरथ रखकर, मानो वह पराया हो, उस तरह उसे पालता है। सारांश यह है कि-किसी भी कारण से उसे छोड़ न सकने पर भी मन्द आदर वाला रहे-क्योंकि वैसा पुरुष व्रत न ले, तो भी वसुसेठ के पुत्र सिद्धकुमार के समान कल्याण को प्राप्त करता है।
सिद्धकुमार की कथा इस प्रकार है । यहां पर्वत की पीली भूमि के समान सुकनका (श्रेष्ठ स्वर्ण से भरपूर) और सुप्रभा (शोभायमान) तगरा नामक नगरी थी। वहां सदैव पूर्वभाषी वसु नामक सेठ था । उसके विनयवन्त सेन और सिद्ध नामक दो पुत्र थे। वे स्वभाव से शान्त, भोले, प्रियभाषी
और धर्मानुरागी थे। सेन धर्म सुनकर शोलचन्द्र गुरु के पास प्रव्रजित हुआ, किन्तु चरण करण में अत्यन्त प्रमादी हो गया।
दूसरा सिद्ध अपने वृद्ध माता पिता का पालन करने के कारण दीक्षा न लेकर गृहवास में रहता हुआ भी शुद्ध मति से निरन्तर इस प्रकार चितवन करने लगा। कब मैं अत्यारंभ के कारण गृहवास को छोड़कर परमसुख की हेतु भूत सर्वज्ञ की दीक्षा ग्रहण करूगा ? कब मैं अपने अंग में भी निस्पृह होकर सर्व संग त्याग करके गुरु के चरणों की सेवा करता हुआ मृगचारी चरूगा।
कब मैं श्रेष्ठ उपधान धारण करके निर्दोष आचारांग प्रमुख आगम शास्त्र को पढूगा ? कब मैं समिति, गुप्ति संपादन करके दुद्धर चारित्र पालूगा ? और कब मेरे वक्षस्थल में (हृदय में) उपशम लक्ष्मी यथेष्ठ रीति से रमेगी ? कब मैं स्वर्ण के समान मेरी