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भाव साधु का प्रस्ताव
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कहते हैं । ऐसा होवे सो द्रव्य साधु तो स्वयं आगम में ही कहा गया है। यथा___ सर्व शुद्ध नयों के हिसाब से अर्थात् निश्चय-नय के हिसाब से जैसे माटी का पिंड है, वह द्रव्य-घट माना जाता है, जैसे साधु है वह द्रव्यदेव माना जाता है वैसे ही सुश्रावक द्रव्य-साधु है ।
इस प्रकार से श्री-देवेन्द्रसूरि विरचित
और चारित्र गुण रूप महाराज के प्रसाद रूप श्री धर्मरत्न की टीका का पीठाधिकार समाप्त हुआ।
द्वितीय भाग सम्पूर्ण